कब तक
कभी सती बना चिता में जला दिया
कभी जौहर के कुंड मे कूदा दिया
छीन ली साँसें कोख में ही कभी
कभी आँख खुलते ही सुला दिया
छीनकर नन्हें हाथों से क़लम कभी
ज़िम्मेदारी की हिना से सजा दिया
कटौती की उसके हिस्से के दूध की कभी
कभी रोटी के ख़ातिर बाज़ार में बेच दिया
पराया बता विदा किया कभी डोली में बिठा
कभी भस्म किया दहेज की आग में जला
सम्मान की रक्षा कह बलि कभी दे दी उसकी
जो हर बरस कलाई पे राखी बाँधी थी कभी
गुण ताक पे रख सभी ,सुंदरता पे आँका उसे
अंह के तेज़ाब से चेहरा जला डाला कभी
इसमत लूटी कभी हवस के गलियारों में
कभी रूह उसकी रोंदी बंद दरवाज़ों में
स्वार्थ को प्रेम बता कभी विवेक उसका हर लिया
दोष अपनी अनैतिकता का भी सिर उसके मढ़ दिया
देवी कह माँग लिया कभी उससे बलिदान
कभी अबला समझ कर दिया उसका अपमान
पूजने लगे कभी उसे शक्ति बता मंदिर में
कभी निषेध कर दिये उसके क़दम भी देवालय में
समाज के पक्षपात की बेड़ी कभी खोली उसने
तुरंत परम्परा का चाबुक उसपे तुमने चला दिया
आख़िर कब तक करोगे उसका दमन तुम
कभी तो कुंठा – मुक्त कर अपने ज़ेहन को
कहो उससे –
देखो! तुम्हारी परवाज़ को मैंने सवछंद आसमान दिया!