कब तक
कब तक
—-///—-
बहुत हो चुका खेल तमाशा,
नहीं सुधरने की अब आशा।
कब तक हम बर्दाश्त करें,
नहीं सहन की अब प्रत्याशा।
धोखे पर धोखे सहते हैं,
अपने भाई हम खोते हैं।
कब तक ऐसा खेल चलेगा?
कब से युद्ध का शंख बजेगा?
घर बाहर का जो भी दुश्मन,
उसका शीश काट हम लेंगे।
खुली छूट एक बार मिले यदि,
पाकिस्तान का नाम न होगा।
✍ सुधीर श्रीवास्तव