कब तक कहो तुम्हीं कि सम्भाले तुम्हारे ख़त
कब तक कहो तुम्हीं कि संभाले तुम्हारे ख़त
सोचा है कर दूँ तेरे हवाले तुम्हारे ख़त
पड़ते निगाह उस पे हुए ज़ख्म सब हरे
जाने नहीं क्यों आज निकाले तुम्हारे ख़त
ये जीस्त ले गई मुझे इक ऐसी राह में
हर सिम्त है अँधेरा उजाले तुम्हारे ख़त
दुनियाँ से नहीं लेना मुझे कुछ तेरे सिवा
मेरे लिए तो इक ही रिसाले तुम्हारे ख़त
हालात हैं ये ऐसे मेरे झोपड़े उड़े
डर है कि ये आँधी न उडाले तुम्हारे ख़त
– ‘अश्क’