कब तक करेंगे हम हिंदू- मुस्लमान!
कब तक करेंगे,
हम हिंदू-मुस्लमान,
अब तो बनके दिखाएं,
हम सभ्य इंसान!
कब तक बंटे रहेंगे,
हम यों ही धर्म संप्रदाय में,
कब तक विभक्त रहेंगे,
हम जात-पांत में!
कब तक दिखेंगे,
हम ऊंच नीच में,
कब तक ढलेंगे हम,
अमीर-गरीब के खांचे में!
कब तक जीएंगे हम,
सच-झूठ के वादों में,
कब तक बहेंगे हम,
भावनाओं के इरादे में!
एक बार करके देखें यह विचार,
हम ही हैं दाता,हम ही भाग्य विधाता,
हम ही क्यों हैं सड़कों पर,,
झगड़ते हुए,
पीटते हुए,
पिटते हुए,
क्यों हैं हम महंगाई से लुटते हुए!
हममें ही हैं,
दीन दुखियों का सहारा,
होता है हम से ही ,
कितनों का गुजारा!
हम ही हैं सब जगह ,
छाए हुए,
हम ही हैं ,
अच्छा या बुरा नजर आते हुए!
हम को ही है यह समझना,
व्यर्थ में ही क्यों आपस में,
लड़ना झगड़ना,
जात धर्म में,
बंटना बिखरना,
हमको ही है यह,
जानना समझना!!