कब्रिस्तान न बन जाएं
मानवीय संवेदनाओं का
मानव से ह्रास हो रहा है
लूट का तांडव
मजहब का बवंडर
दर-दर भटकती मानवता
सुन रहा हूँ
हर दिन की चीख पुकार
महिला को बोलता
कोई विक्षिप्त
किन्तु
उससे अधिक तो
जिसने बीच
चौराहे में
मारे उसे डंडे
बुलवाया
अल्लाह
जय श्री राम
जय हनुमान
दूषित मानसिकता का
दिया परिचय
खुद ही है विक्षिप्त
प्रेमी को पकड़ा
मजहब के ठेकेदारों ने
उखाड़ लिए नाखून
नोच डाले बाल
कर दिया विक्षिप्त
सास ने
जो खुद
एक स्त्री है
बहु को मारा
ससुर के साथ
फाड़ डाले कपड़े
कर दिया नंगा
झकझोर डाला
उसके स्त्रीत्व को
बेरहम दुनिया नही
मानव है
जो खुद गुणों को
भुलाकर
बन गया बहशी
तभी तो
हर रोज
जिंदा माँस में
नोची जाती हैं
औरतें
घूरा जाता है
छेड़ा जाता है
माल माल कहकर
पुकारा जाता है ।
हर निगाहे तभी तो
भूखे सियार की तरह
ताकती है ।
सोचता हूँ सदियों पुराना
संस्कृति, सभ्यताओं का देश
कहीं कब्रिस्तान न बन जाए ।
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प्रदीप कुमार गौतम
शोधार्थी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी