कबले विहान होखता!
निमाव डिबरी हई सगरो, कालिख निशान छोड़ता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
झींगुर अउर सियार क कबले, उत्पात खतम होई।
लूटमार करत चोरवन क कब, जमात खतम होई।।
मुसवा सरकंडा आ पतलो में, काहें धान खोजता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
रात क राजा आन्हर हौ, जेकर बहरा प्रधान भईल।
देशद्रोह से उहे बंचित, मन मार जे गुणगान कईल।।
खीझ के मन बचे खातिर, दूसर समाधान जोहता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
सिपाहीयन क काँधे पर, के बन्दूक आपन धरत बा।
सेवा क बा भाव केकर, आ घर मेवा से के भरत बा।।
छोड़ परिवार सगरी जोखम में, जान जवान ढ़ोवता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
आम के दाम बेची गुठली, गुदा मलाई खुदे चापेलें।
चोर चोर मौसेरा भाई, पर बन दीवान हमें डाँटेलें।।
इहाँ सकल जियावन दाता, फूट फूट किसान रोवता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
नयका के चक्कर मे, सब पुरनियाँ भुलाईल बा।
दूध भात छोड़ मन, अब घिऊवो से अघाईल बा।।
गड़ल मुर्दा खाये खेतवा के, रोज स्वान खोदता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
आपन मन के बोझ उतारे, दूसर के मन जाने ना।
अइसन मोर भाई बिरादर, जे केकरो क माने ना।।
सबके मतिमंद जान, जाहिल खुद में सुजान टोवता।
खोल खिड़की देख धनिया, कबले विहान होखता।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०१/०१/२०२३)