कनखियों से देखकर वह मुस्कुराती जा रही है।
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छंद-द्विमनोरम
कनखिओं से देखकर वह मुस्कुराती जा रही है।
और मादक गंध अपनी नित बहाती जा रही है।
केश बादल से घनेरे हैं घटाएं छांव की ये,
बूंद बनकर प्यास को नित ही बुझाती जा रही है।
भाव भंगिम भावनाएं हैं नहीं दिखतीं कहीं भी,
भाल पर इक आभ ठहरा मन लुभाती जा रही है।।
कंटकों में ज्यों खिले हों फूल मधु मकरंद वाले,
और अधरों से सुधारस नित पिलाती जा रही है।।
आंख चिलमन चाल चंचल मस्तियां तन में भरीं हैं,
है बहुत गम्भीर लेकिन खिलखिलाती जा रही है।।