“कनकलता”
मंद-मंद मुस्का रही
प्रभात किरण की लाली,
मूँछों पर दे ताव खड़ी
कनकलता हरियाली|
चमचम चमके स्वर्णिम गेहूँ
हरे खेत की बाली,
पीत अम्बरी ओढ़ चुनरिया
चले पवन निराली|
‘मयंक’ निशा शीतल भई
चमक रजत-सी प्याली,
कृषक मनोरथ उदित भए
कटे फंद जंजाली|
✍के.आर.परमाल ‘मयंक’