कदम
मेरी मंजिल जो ढूंढू मैं,
अर्श की
तलबगार सी बनके
कमबख्त रास्ते ख़ुद -ब-ख़ुद
मुख्तलिफ हो
वही फर्श पर ले आते हैं
जुर्रत जो करती हूं
कभी मंजिल को शिद्दत से पाने की
ये कदम जाने क्यूं फिर
पीछे खींच लाते हैं
ये मसला बड़ा ही
जहीन है यारों
कैसे कहूं की
कमअक्ल मैं खुद ही हूं
या ये कैफियत से बनाते हैं।
Arti Acharya
Dil se Dil Tak