” कदम कहाँ रूकते हैं ” !!
मन को रोको बरबस चाहे ,
कदम कहाँ रुकते हैं !!
कई पड़ाव उम्र के देखे ,
नहीं थकन से नाता !
मौसम तो है एक छलावा ,
रोज़ तानता छाता !
धुंध , धुंधलके भेद दिये सब,
कहाँ कभी झुकते हैं !!
आँगन में फुलवारी ना है ,
हुए जगह के टोटे !
तुलसी के बिरवा हैं खोये ,
हैं मंसूबे खोटे !
जहाँ कभी झूमी अमराई ,
अब बबूल उगते हैं !!
आर पार की लड़ें लड़ाई ,
मूल मंत्र यह सीखे !
सोच हमारी रही धनात्मक ,
चखे सदा फल नीके !
नहीं किसी के ऋणी समझना ,
सब हिसाब चुकते हैं !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )