कदंब और ब्रज
बैठ कदंब की छाँहन में साँवरिया की सुंदर धुनि निकरी,
जिस ज्ञान से प्रेम न उपजत है वह ज्ञान गली है धूरि भरी।।
है प्रेम डगर परमारथ की, सुध-बुध तजिकें कछु पीर हरी,
जो काम करौ सों मन से करौ, संदीपनि शिक्षामान खरी।।
इन डारन ही पे राधा कन्हाई, ने इत उत अपने चीर धरी,
तट कालिन्दी कूल समन्द भए, वन बाग तड़ाग भरी बिफरी।।
बनिआई है कहूँ लबाड़न की, हिलि मेलि गए सारे पहरी,
गरियारे पड़ोसी लुटत रहें, बड़ दुबकि रहें न सबद करी।।
यह बौर शिवानी अति प्रिय हैं, विहगन भी हियं कलि केलि करी,
जो लूट अबोध की नाईं करी, वह काम न चोर उचक्काल करी।।
न वे लोग रहे, न वे कुंज रहे न वे गोपी रहीं, न कुंज गली
तिहुँ लोक निहारौ, आप सभी, ब्रज लोक सौ लोक न दूजौ हरी।।
–क्षेत्रपाल शर्मा
१३ जुलाई २००९