कतिपय दोहे…
मेरी भी सुध लो प्रभो, छुपा न तुमसे हाल।
पीर गुनी जब भक्त की, दौड़ पड़े तत्काल।।१।।
समता उसके रूप की, मिले कहीं ना अन्य।
निर्मल छवि मन आँककर, नैन हुए हैं धन्य।।२।।
दिल में उसकी याद है, आँखों में तस्वीर।
उलझे-उलझे ख्वाब की, कौन कहे ताबीर।।३।।
चाहे कितना हो सगा, देना नहीं उधार।
एक बार जो पड़ गयी, मिटती नहीं दरार।।४।।
पुष्पवाण साधे कभी, दागे कभी गुलेल।
हाथों में डोरी लिए, विधना खेले खेल।।५।।
प्रक्षालन नित कीजिए, चढ़े न मन पर मैल।
काबू में आता नहीं, अश्व अड़ा बिगड़ैल।।६।।
एक बराबर वक्त है, हम सबके ही पास।
कोई सोकर काटता, कोई करता खास।।७।।
कला काल से जुड़ करे, सार्थक जब संवाद।
कालजयी रचना बने, लिए सुघर बुनियाद।।८।।
मन से मन का मेल तो, भले कहीं हो देह।
प्यास पपीहे की बुझे, पीकर स्वाती-मेह।।९।।
बात-बात पर क्रोध से, बढ़ता मन-संताप।
वशीभूत प्रतिशोध के, करे अहित नर आप।।१०।।
क्षणभर का आवेग यह, देर तलक दे शोक।
भाव प्रबल प्रतिशोध का, किसी तरह भी रोक।।११।।
-© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ0प्र0 )
“सुरभित सृजन” से