कतरे-कतरे का होगा हिसाब
इक दूजे की होड़ में
भाग रहे हैं सब।
मंजिल नजर आती नहीं
लक्ष्य सधेगा कब।
आपाधापी का है मंजर
पैसा बन गया है रब।
रिश्तों का कत्लेआम हो रहा
मद में चूर हुए हैं सब।
थाली में खाकर करते छेद
सोचो, देख रहा है रब।
सच्चाई और नेकी दम तोड़ रही
मूकदर्शक बनोगे कब तक सब।
उठो, जागो और जगाओ
आलोकित कर दो सबका पथ।
कतरे-कतरे का होगा हिसाब
‘दुर्गेश’ मान जा अब।