कठिन है
कितना नादान हूं मैं, उनको जगाने चला हूं।
जो धरती में समा बैठे, उन्हे उठाने चला हूं।।
जम गया लहू जिनका, रुधिर नलिका में।
बड़ा बेशर्म हूं मैं उनको, जोश दिलाने चला हूं।
करू इतिहास की बाते, या फिर आज पे रोवू।
भारत की दुर्दशा पर, की चादर तान कर सोवू।।
जो सोए घोर निद्रा में, उन्हे जगाने चला हूं….
ये इनका स्वयं में जीना, है इनका पेट ही भारी।
ये इनका लालची होना, है सदियों की ये बिमारी।।
गुलामी और आजादी का, फर्क बताने चला हूं ….
बगल से ले गया बीबी, लुटी बेटी की इज्जत भी।
लहू है इनका बर्फीला, ये बेगैरत बेइज्जत भी।।
इनके इस बर्फीले लहू में, उबाल लाने चला हूं ….
ये सब कुछ भूल बैठे है, वो रामायण वो गीता भी।
न रावण याद है इनको, न तो श्री राम सीता ही।।
इनको लक्ष्मण सा स्वाभिमान, सिखाने चला हूं ….
शिवाजी से न है मतलब, न पृथ्वीराज को जाने।
महाराणा से क्या लेना, भगत सिंह को क्यों जाने।।
इनको आजाद का बलिदान, याद दिलाने चला हूं …
मैं नादान हूं, किसको जगाने चला हूं ….