कठमूल्लेपन के नाम एक फतवा (हास्य कटाक्ष)
कठमूल्लेपन के नाम एक फतवा
(हास्य कटाक्ष)
चाचा जान अपनी अधपकि दाढ़ि खजुआते हुए बोला क्यों कारीगर मियाँ ये कौमी एकता के जद्दोजहद मे लगे रहते हो? क्या लोग मान लेंगे तुम्हारी हमारी बात? हर कोइ तो मजहबी दंगों मे तमाशाबीन बना हुआ है? पूरा देश हिंदू मुस्लिम झगड़ो मे उलझा हुआ और नेता लोग एक ही थाली के चट्टे बट्टे हम सभी को गुमराह करने पर तुला हुआ?
दिल्ली गेट वाले वो रहीम चाचा अक्सर मिल जाया करते थे जब मैं अम्बेडकर स्टेडियम रिपोर्टिंग के लिए जाता. चाचाजान कभी खेल के मैदान मे तो कभी आई. टी. ओ पे अक्सर मिल जाया करते. उनसे अच्छि बनती थी इतना की वो कहते की मेरे दाढ़ी मे खुजलाहट हो रही तो उनकी दाढ़ी भी खजुआ देता था. खेल के साथ देश दुनिया के हालात पे भी उनसे बतिया लिया करते. मानवीय विचारों वाले चाचाजान अक्सर टोकते की लोग कैसे मज़हब के नाम पर दंगे फसाद मे लग जाते?
मैने चाचा जान को टोका की आप इन सबको रोकते क्यूं नहीं? समझा तो सकते ही हैं? चाचा ने कहा कि़शन बेटे किस किस को समझांउ? देखा कल ओ तुम्हारे पड़ोस वाले काशी पंडित कैसे मुझे घूरे जा रहे थे? उनका बस चलता तो बहकाबे मे आके हमारी दाढ़ि भी जला डालते? मैने कहा हमारे रहते एसे थोड़े न होने दूंगा चाचा? उन्होंने कहा तुम हमेशा मेरे साथ ही रहोगे या रिपोर्टिंग के बाद दफ़्तर भी लौटोगे? मैने कहा हाँ वो तो ठीक है.
देखा नहीं आपने उस दिन दरियागंज बाज़ार मे अशरफ मुझसे कैसी बहकी बाते कर रहा था? कह रहा था तुम और रहीम चाचाजान एक साथ क्यूँ बैठते? अशरफ के ईशारे पर तो लोक हाथापाई तक कर लेते शायद. चाचा बोले किशन बेटे तूं चिंता न कर मै अशरफ को समझा लूँगा. मैने पूछा की कुछ एसा की अशरफ और काशी पंडित को समझाना ही ना परे? चाचा फिर से अपनी दाढ़ि खजुआते बोला हां है ना? जो भी मज़हबी दंगे करे वैसे कठमूल्ली सोच वालों के लिए कठमूल्लेपन का नाम एक फ़तवा? की जनता एसे दंगाईओ को ठीक से समझा दे की फिर दंगा ही न हो.
लेखक -किशन कारीगर
(©काॅपीराईट)