कटुसत्य
धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का संकल्पित भाव
परिकल्पना बनकर रह गया है ,
समाजवाद का नारा शनैः शनैः
पूंजीवाद में बदल रहा है ,
जनप्रतिनिधियों का चुनाव जहां
जाति एवं धर्म के आधार पर हो ,
वहां सर्वधर्म एवं सर्वजातीय संभाव
कैसे स्थापित हो ?
एक धर्म को दूसरे धर्म से नीचा दिखाने की
कोशिश लगी हुई है ,
आलोचनाओं और अनर्गल प्रलापों की
झड़ी लगी हुई है ,
धार्मिक कट्टरवादिता धार्मिक वर्चस्व हेतु
दो गुटों को लड़ाने में लगी हुई है ,
उधर स्वार्थ परक राजनीति भी
अपनी रोटियां सेंकने में लगी हुई हैं ,
जनता को आपस में लड़वाकर
वोट बैंक नीति के चलते राजनेता;
अपनी कुर्सी पक्की कर रहे हैं ,
देश के ज्वलंत मुद्दे बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार
और महंगाई से लोगों का ध्यान भटकाकर,
जाति और धर्म के आधार पर
राजनीति कर रहे हैं ,
अधिकांशतः लोग भी इनके दिए
प्रलोभनों के बहकावे में आकर,
इनके इशारों पर चल रहे हैं ,
यथार्थ को झुठलाकर, झूठ का सहारा लेकर,
अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं ,
व्यक्तिगत विवेक समाप्त हो गया है,
और समूह मानसिकता,
सर चढ़कर बोल रही है ,
देश के सर्वधर्म समभाव एवं
सहअस्तित्व की भावना मे
ज़हर घोल रही है ,
सत्य एवं न्याय की गुहार को
प्रपंच रचकर दबाने की
कोशिश की जाती है ,
जनमत के अभाव में
सत्यभावना कुंठित हो,
मानवीयता सिसकती रह जाती है ,
व्यवस्था के दुष्चक्र में फंसा आमआदमी,
त्रिशंकु बन कर रह जाता है ,
किंकर्तव्यविमूढ़ हो,
अपने भाग्य को कोसता रह जाता है।