“कटी पतंग हूं डोर से”
बंधे प्रेम के सूत्र से,
कटे स्वार्थ की चोट से,
वृक्ष डाल पर लटका,
चीरे वस्त्र लाज के,
बंधन भाव के टूटे,
दूर कहीं धरातल से,
मिले एक कोण से,
मैं कटी पतंग हूं डोर से।
धरती पर न अम्बर में,
तैर रहा नील गगन में,
शून्य, क्षितिज में उड़ रहा,
आंखों से ओझल होकर ,
पवन वेग में ठहरा,
दृगों में जैसे पहरा,
बंधे स्नेह की कोर से,
मैं कटी पतंग हूं डोर से।।
✍वर्षा (एक काव्य संग्रह)से/ राकेश चौरसिया