कटते वन ….उजड़ते जंगल
कटते वन ….उजड़ते जंगल
हो रहा,
कुदरत संग खिलवाड़ !
माँ धरती की
छाती पर
होते वार !…..
देते छाया
और श्र्वास
सभी को
ये वृक्ष तो ,
फिर भी सहेते वार …….
मीट्टी बन जायेगी
रण समान ,
होंगे वन प्राणी
सब बेहाल ……
सृष्टि पुकारे होकर
त्राहिमाम,
ये कोन्क्रिट के
जंगलों से हो रहा
मनुष्य जीवन बेजार …..
लायेंगे कहाँ से
जडीबूटीयां
जीने की,
कुठाराघात है
ये तो,
मूल-जीवन पर
ही अपार…..
विशाल धरा ये
नहीं सिफँ
मनुष्यो की ,
पेड-पौधे-
जीव -जंतु
प्राणी का भी अधिकार…..
समा रख्खा है
वृक्षो ने दिल में
ओकसीजन,
प्यारसे ये
सींचते सांस
हमारी अपरंपार……
छोड दिया गर
वृक्षो ने देना
ओक्सिजन,
घूमते रहेंगे क्या
लेकर सीलीन्डर
का आधार?……..
नाम लेते है
ग्लोबलवोर्मीग का
मगर ….
ये तो मनुष्यो का ही
नया आविष्कार ।
-मनिषा जोबन देसाई