‘कच’ और ‘देवयानी’ पौराणिक कथा
हिन्दू ग्रंथों के अनुसार ‘कच’ देवताओं के गुरु बृहस्पति के पुत्र थे। वेद साहित्य में बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित माना गया है। देवासुर संग्राम में जब बहुत से असुर मार दिए गए तब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी संजीवनी विधा के द्वारा फिर से जीवित कर दिया। यह देखकर देवगुरु बृहस्पति जी ने ‘कच’ को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विधा सीखने के लिए भेज दिया। देवयानी दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। कच नवयुवक थे वे अपने संगीत और गायन से देवयानी को प्रसन्न किया करते थे। देवयानी भी कच के समीप ही रहा करती थी। इस प्रकार दोनों एक दुसरे का मनोरंजन करते और एक दुसरे के कार्यों में मदद करते थे। देवयानी कच को मन ही मन चाहने लगी। ये बात किसी को भी मालूम नहीं था। इसी बीच राक्षसों को पता चला कि देवगुरु का बेटा कच शुक्राचार्य से शिक्षा ग्रहण करने गया है। राक्षस समझ गए कि कच का उद्देश्य है सिर्फ मृतसंजीवनी विधा का ज्ञान प्राप्त करना। राक्षसों ने यह निर्णय लिया कि कच का जीवित रहना ठीक नहीं है। यह विनाशकारी होगा इसलिए वे सब चुपचाप कच को मारने की योजना बनाने लगे और एक दिन राक्षसों ने कच को पकड़कर उसका वध कर दिया। यह बात सुनते ही देवयानी अपने पिता के पास जाकर रोने लगी और अपने पिता से कच को फिर से जीवित करने की याचना करने लगी। देवयानी को इस तरह से व्याकुल होते देख पिता को समझते देर नहीं लगा। देवयानी के जिद्द और पुत्री मोह में हारकर शुक्राचार्य ने कच को पुनः जीवित कर दिया। इससे राक्षस चिढ़ गए। राक्षसों ने फिर कुछ दिन बाद कच को मृत्यु के घाट उतार दिया लेकिन शुक्राचार्य भी क्या करें, पुत्री के मोह के कारण फिर से कच को जिंदा करना पड़ा। अब तो राक्षस और भी ज्यादा क्रोधित होने लगे। राक्षसों ने सोंचा कि जो भी हो जाए हमें कच को अपने रास्ते से हटाना ही होगा। राक्षसों ने तीसरी बार कच को मारने का उपाय ढूंढना शुरू कर दिया। इस बार राक्षसों ने कच को मारकर उसके शरीर को जला दिया और उसके शरीर के जली हुई राख को पानी में मिलाकर गुरु शुक्राचार्य को ही पिला दिया। राक्षस अब निश्चिंत हो गए की चलो कच से छुटकारा मिल गया। देवयानी को जब कच कहीं नहीं दिखाई दिये तो वह बहुत दुखी हो कर इधर-उधर ढूढने लगी लेकिन कच का कहीं पता नहीं चला। देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य से प्रार्थना करने लगी कि आप कच का पता करें। यह सुनकर शुक्राचार्य ने अपने तपोबल की शक्ति से कच का आवाहन किया तो उन्हें कच की आवाज उनके पेट से सुनाई पड़ी। शुक्राचार्य दुविधा में पड़ गए क्योंकि वे कच को जीवित करेंगें तो स्वयं मर जायेंगे। यह सोंचकर गुरु शुक्राचार्य ने कच की आत्मा को संजीवनी का ज्ञान दे दिया। कच अपने गुरु शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बहार निकल गये और शुक्राचार्य की मृत्यु हो गई। अब कच ने संजीवनी विधा का प्रयोग कर गुरु शुक्राचार्य को जीवित कर दिया। कच ने शुक्राचार्य को जीवित कर अपने शिष्य धर्म को निभाया। गुरु शुक्राचार्य ने कच को आशिर्वाद दिया। गुरु कि आज्ञा प्राप्त कर कच देवलोक जाने लगे तब देवयानी ने कहा, ‘महर्षि अंगीरा के पौत्र, मैं तुमसे प्यार करती हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो और वैदिक मन्त्रों द्वरा विधिवत मेरा पाणी ग्रहण करो’। देवयानी की इन बातों को सुनकर देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच बोले- सुभांगी देवयानी! जैसे तुम्हारे पिता शुक्राचार्य मेरे लिए पूजनीय और माननीय है उसी तरह तुम भी मेरे लिए पूजनीय हो, बल्कि उससे भी बढ़कर क्योंकि धर्म की दृष्टी से तुम गुरुपुत्री हो इसलिए तुम मेरी बहन हुई। अतः तुम्हें मुझसे इस तरह की बातें नहीं करना चाहिए। तब देवयानी ने कहा- ‘द्विजोतम कच! तुम मेरे गुरु के पुत्र हो मेरे पिता के नहीं अतः तुम मेरे भाई नहीं लगते, देवयानी की बातें सुकर कच बोले कि उत्तम व्रत का आचरण करने वाली सुंदरी! तुम मुझे जो करने के लिए कह रही हो वो कदापि उचित नहीं हैं। तुम तो मेरे अपने गुरु से भी अधिक श्रेष्ठ हो। कच ने सत्य बताते हुए कहा कि मेरा यहाँ आने का मुख्य उद्देश्य था संजीवनी विधा के ज्ञान को प्राप्त करना। अब मैं वापस देवलोक जा रहा हूँ। कच ने यह भी कहा की मेरा दूसरा जन्म शुक्राचार्य के पेट से हुआ है अतः दैत्यगुरु शुक्राचार्य मेरे पिता तुल्य हुए और देवयानी बहन तो मैं बहन से शादी कैसे कर सकता हूँ। देवयानी ने कहा बार-बार दैत्यों के द्वरा मारे जाने पर मैंने तुम्हें पति मानकर ही तुम्हारी रक्षा की है अथार्त पिता के द्वरा जीवनदान दिलाया है। यदि तुम मुझे नहीं आपनाओगे तो यह विधा तुम्हारे कोई काम नहीं आयेगा। इस प्रकार जब देवयानी असफल हुई तो उसने कच को शाप दे दिया। देवयानी के शाप को सुनकर कच बोले, देवयानी मैंने तुम्हें गुरुपुत्री समझकर ही तुम्हारे अनुरोध को टाल दिया है। तुममे कोई भी कमी या दोष नहीं है। मैं स्वेच्छा से तुम्हारा शाप स्वीकार कर रहा हूँ, लेकिन बहन मैं धर्म को नहीं छोडूंगा। ऐसा कहकर कच देवलोक चले गए। कच के वापस देवलोक चले जाने के पश्चात् देवयानी व्यथित होकर जीवन जीने लगी।
कबीर साहब के शब्दों में-
घडी चढ़े, घडी उतरे, वह तो प्रेम ना होय,
अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिए सोये।
प्रेम सिर्फ प्रप्त करने का ही नाम नहीं बल्कि प्रेम सेवा, समर्पण और त्याग का भी नाम है।
जय हिंद