कच्चा रंग
उस दिन जब
मिले थे,
मुस्कुरा कर नजरे ठहरी
हाथ भी बढ़े
पर सिर्फ”कैसे”
कहकर ही,
नजरें किसी
और को
तलाशने लगी,
फिर बिना कुछ कहे
तुम दूसरी
ओर मुड़ गए
गर्मजोशी के
साथ
गले मिलने के लिए।
बेचारा “हो”
भी शिष्टाचार
पूरा करने को
तरसता रहा
व्यस्तता निगल
गई होगी शायद?
आज फुरसत
मे ,
पूरी बत्तीसी के साथ,
“अरे भाई कैसे हो”
को कान से पकड़े
लाये हो,
गले भी मिल चुके,
हाथ कस कर
थामा हुआ है अब तक
मैं विस्मित हूँ
तुम्हारे इस
कच्चे रंग को देखकर,
मुझे रंगों से गुरेज नहीं
बस थोड़े पक्के हों,
तो जंचते हैँ,
अब देखना ये है
कि शुरू कहाँ से
होते हो?
अहसास तो है,
पर एक गुंजाइश सी
कहीँ रख छोड़ी है।