‘ ककड़ी के चोरों को फाँसी ‘ [ प्रचलित लोककथनों पर आधारित-लम्बी तेवरी-तेवर-शतक ] +रमेशराज
हर तेवर ‘लोकोक्ति’ सुहाये, शब्दों के भीतर तूफान
अपने घर को फूंक तमाशा हुए देखने हम तैयार, क्या समझे!
दही जमेगा, घी निकलेगा, जब ले लेगा दूध उफान
लिये बाल्टी ‘लोककथन’ की काढ़ें हम गइया की धार , क्या समझे!
भानुमती का जैसे कुनबा चना मटर सँग गेंहू धान
कुछ चुन, कुछ गढ़ ‘नयी कहावत’ ‘तेवर-शतक’ किया तैयार, क्या समझे!
‘फैलुन-फैलुन फा’ के बदले हम लाये ‘आल्हा की तान’
हर तेवर दो-दो तुकांत-क्रम जिनमें दिखे दुधारी मार, क्या समझे!
क्रन्दन को कहना आलिंगन होगा लोगों को आसान
उसे ग़ज़ल हम कैसे कह दें जिसमें भालों की बौछार, क्या समझे!
निकले सर पर कफन बाँधकर फौलादी सीने को तान
लिख पाये इसलिए तेवरी अपने ‘सोचों’ में अंगार, क्या समझे!
मुँह गाली देता है लेकिन थप्पड़ खाय विचारा कान
कोई पापी दण्ड किसी को, माँ कपूत का भरे उधार, क्या समझे!
हम कोल्हू के बैल सरीखे लिये अमिट अब पांव थकान
खुर टूटे अरु दांत गिरे सब, कंधे बोझे को लाचार, क्या समझे!
काले अक्षर भैंस बराबर जुटे साक्षरता अभियान
मंन्त्री बनकर मार रहे हैं पढ़े-लिखों को जूते चार, क्या समझे!
हम महान हैं इसीलिए तो अपनी है हर बहस महान
हम कर रहे ब्याह से पहले यारो गौने पर तकरार, क्या समझे!
ब्रह्मचारियों का अनशन से बढ़ता मान और सम्मान
आलू सौ बच्चों का भालू क्या समझेगा इसका सार, क्या समझे!
खुद को नहीं सिर्फ औरों को अपने हैं सारे व्याख्यान
नाइन पाँव सभी के धोती खुद के पाँव मैल-अम्बार, क्या समझे!
तर्कहीन बहसों के बदले ज्ञानी से बस पाओ ज्ञान
किसी तरह से भला नहीं है चलते बैल मारना आर, क्या समझे!
सौ-सौ चूहे खाय बिलइया अब चाहे गंगा-स्नान
अब हर एक लुटेरे पर है ‘दानवीर’ का भूत सवार, क्या समझे!
करे न रक्षा वो औरों की थर-थर जिसके काँपें प्रान
चून माँगकर पेट भरे जो, वो क्या भात भरेगा यार, क्या समझे!
उल्टे चलन जगत के देखे नीरस मिले आज रसखान
भरे समन्दर घोंघा प्यासा, प्रेम-बीच पसरी तकरार, क्या समझे!
हम सुख को सुख तब ही मानें अधरों तक आये मुस्कान
माह न जाड़ा, पूस न जाड़ा, तब जाड़ा जब शीत बयार, क्या समझे!
घुटना घुटने को झुकता है, दयावान को ही दुःख-ज्ञान
घर आये बेटे की मइया आँत टोहती नजर उतार, क्या समझे!
अभी न दाँत दूध के टूटे, बेटा सबके काटे कान
बचपन में ही दीख रहे हैं सुत के पाँव महल के पार, क्या समझे!
पढ़े-लिखे को कहा फारसी, क्या पण्डित को ज्योतिष-ज्ञान?
पैनी तो पत्थर में पैनी, क्या तैरा को नदिया-पार, क्या समझे!
लोग हँसें रख हाथ मुखों पर नंगे के सुनकर व्याख्यान
फाँके सतुआ लेकिन बोले ‘मथुरा में करना भण्डार’, क्या समझे!
सबको राह बताते फिरते जो हैं राहों से अन्जान
कूँए के मेंढ़क समझाते मिले हमें सागर का सार, क्या समझे!
पाँवों में जब काँटे टूटे तो आया जूतों का ध्यान
आग लगी तो कुआ खोदने झटपट दौड़ा यह संसार, क्या समझे!
घर के भीतर धम्मक-धम्मा मीयाँ-बीबी कठिन निभान
धरी लुगइया कभी न करियो, करियो ठीक-ठिकानेदार, क्या समझे!
अपना खाना और कमाना, अपनी ढपली-अपनी तान
अपने ही रँग रँगे हुए सब, अब समूह का त्याग विचार, क्या समझे!
टूटी दाढ़ बुढ़ापा आया, टाँग कापतीं, बहरे कान
गये जवानी फीका लगता सारा का सारा संसार, क्या समझे!
नंग चोर छिनरा ज्वानी के करें बुढ़ापे ईश्वर-ध्यान
सारे पाजी बनते काजी वृद्ध अवस्था सोच-विचार, क्या समझे!
पाँव न जानें कान पकड़ना, पकड़ें सदा हाथ ही कान
काँटे को झट सुई निकाले, हाथ न ली जाये तलवार, क्या समझे!
नोटों-भरी अटैची यारो देख विहँसता पुष्प समान
नेता हो पानी से पतला हर दल बहने को तैयार, क्या समझे!
नयी आर्थिक नीति अजब है मरुथल दिखे पुष्प-उद्यान
बिन बादल के कौंधे बिजली, आसमान से गिरे फुहार, क्या समझे!
जयचंदों ने करीं बधिक की सारी तरकीबें आसान
चिडि़याएँ दाने को देखें, नहीं जाल पर करें विचार, क्या समझे!
मंत्री बचे, लुटे सब जनता, रखे पुलिस बस इतना ध्यान
खड़े देखते ट्रेन-डकैती गार्ड सिपाही थानेदार, क्या समझे!
बलशाली को अति बलशाली पल में दिखता बाप समान
देख शिकारी फौरन भागे, कुंजर-जंगल का सरदार, क्या समझे!
केवल अधिकारों की बातें खुदगर्जी इस युग की शान
खाने को तो शेर सरीखे और कमाने अजगरदार, क्या समझे!
दुःखी नाक की पीर न पूछें होकर नाक पड़ोसी कान
सने हुए हाथों के यारो पाँव बने कब धोबनहार, क्या समझे!
लुटें गोपियाँ उसके सम्मुख वो ही अर्जुन वही कमान
समय-समय के फेर बाज पै झपट करे है बगुला वार, क्या समझे!
राजनीति में नकटे-बूचे लुच्चे-छिनरे नंग महान
देखा जिन्हें चाटते तलुवे, बने फिरें वे अति खुद्दार, क्या समझे!
साथ भला कुण्डी-किबाड़ का, ज्ञानी के सँग बुद्धि महान
विष ही घोलेगा जीवन में यारो मधुशाला का यार, क्या समझे!
औरों के धन को डकारकर ऐंठे उजले भृकुटी तान
उजलों से कंजरिया अच्छी लौटा देती लिया उधार, क्या समझे!
खाते वाले चलन न होते करुणा और दया की खान
बिन मतलब के चिरी अँगुरिया क्यों कर मूतन लगा सुनार, क्या समझे!
हर पल वाद-विवाद मिलेगा भौंडे़ राग-बेसुरी तान
जिस घर भी हों तेरह चूल्हे, नहीं मिलेगा उस घर प्यार, क्या समझे!
यही सोच शोषण जनता का नेता करता सरल विधान
नीबू और आम के मसके फूट पड़े पल में रस-धार, क्या समझे!
देख दरोगा पूरा तोले दाँत निपोरि सभी सामान
वही कहावत पुनः सिद्ध है-‘बनिया होय दबे का यार’, क्या समझे!
हम महान हैं तभी हमारे होते सारे प्रश्न महान
बाल कटाते पूछ रहे हैं-‘सर के ऊपर कितने बार’, क्या समझे!
हल्का करने हेतु काम को जगह-जगह बाँटें विद्वान
सर पर बोझ, पिराये गर्दन, कंधों पर लो उसे उतार, क्या समझे!
बहरा कहे सुनायी देता, अंधा जग का करे बखान
राग-ताल जो गीत न जाने, घूम रहा है लिये सितार, क्या समझे!
न्योते बामन खायें ना छूता पिफरे पाँव जिजमान
ऐरे-गैरे लोग श्रा में ले आया पण्डित मक्कार, क्या समझे!
माँ तो मरे धीय को निश-दिन, मरती धीय धींगरा-शान
और उदार बाप के घर में लूट-निपुण है पुत्र अपार, क्या समझे!
साधु उसे परसाद थमाये जो थाली में डाले दान
अंधा बाँट रहा रेवडि़याँ अपनों को दे बारम्बार, क्या समझे!
पागल होकर मति का अंधा आँख सहारे ढूंढे़ कान
नगर ढिंढोरा कंधे छोरा सूझे नहीं सही उपचार, क्या समझे!
समझदार उसको ही मानो करता युक्ति राह आसान
पल-पल हुक्का पीने वाला गाड़े भूभर में अंगार, क्या समझे!
कर अपमान खिलाये खाना रख आगे पूड़ी पकवान
गूलर के फल भीतर भुनगा इसका मीठापन बेकार, क्या समझे!
मूरख करता रोज कमायी खाते जिसको चतुर सुजान
संग सिरफिरे यूँ ही डोलें, चंट शिकारी करे शिकार, क्या समझे!
साधु चलायें चकलाघर अब, योगी को है भोग महान
जेठ संग भागे द्वौरानी आज हुआ ऐसा संसार, क्या समझे!
मन पर दुःख का यदि साया हो तो मुख से गायब मुस्कान
सर के ऊपर बोझ रखो तो पहुँचे तुरत पाँव तक भार, क्या समझे!
बढ़े हुए नाखून, बाल दाढ़ी के होते बोझ समान
इन्हें काटना ही चतुराई, बढ़ी मूँछ का कर सत्कार, क्या समझे!
बूट पहनकर राह चलो तो काँटे करें राह आसान
केवल भगतसिंह की भाषा सुनती है बहरी सरकार, क्या समझे!
क्रान्तिकारियों की तलवारें फिर से करें रक्त-स्नान
‘तिलक’ ‘सुभाष’ सरीखे नेता फिर भारत में हों तैयार, क्या समझे!
बेटी माँगे महल-दुमहले, कूटे बाप गैर के धान
माँ तो पीसत-पीसत हारी, पूत बने है साहूकार, क्या समझे!
उल्टी दिशा पालकी जानी, गलत नहीं यारो अनुमान
छिनरे नेताओं के कंधे जनता की डोली का भार, क्या समझे!
मन-मन भाये मूड़ हिलाये देख समोसा या मिष्ठान
बिन चुपड़ी रोटी रखवाये, खा रसगुल्ला दिल-बीमार, क्या समझे!
नेता रोये बिन कुर्सी के, वैश्या रोइ बुढ़ापा जान
रोइ सियासत बिन शकुनी के, खेती रोये बिन जलधार, क्या समझे!
टंगी मार बढ़े आगे जो उसको भी न राह आसान
खाई खोदे जो औरों को उसको कूप मिले तैयार, क्या समझे!
ढोंगी के भाड़े के टट्टू घोषित करते फिरें महान
बिन परमारथ बिना ज्ञान के नकली संत आज तैयार, क्या समझे!
गद्दी उतरे नेताजी का काग-कूकरे जैसा मान
चार दिनों की रहे चाँदनी फिर छाये जीवन अँधियार, क्या समझे!
हों बलहीन नियति के आगे अच्छे से अच्छे बलवान
शेर, भेडि़या, हाथी, मानुष सब झेंलें मच्छर की मार, क्या समझे!
नेता सत्ता रहते फूफा चमचों के सँग चढ़े विमान
सत्ता के जाते ही उससे आँख चुरायें तावेदार, क्या समझे!
तब तक ही कुहराम नहीं है छुपी हुई है जब तक म्यान
अगर खोल से बाहर निकली चमक उठेगी झट तलवार, क्या समझे!
पढ़कर अमरीका आये हो भेद-भाव पर अब भी ध्यान!
पानी पीकर जाति पूछना अब तो छोड़ो मेरे यार, क्या समझे!
क्षत्री वो जो करे निछावर निर्बल के हित अपने प्रान
जो क्षत्री हो रण से भागे उसके जीवन को धिक्कार, क्या समझे!
जिस घर बाप शराबी होगा सुत भी करे सुरा का पान
चूहे जाए मिट्टी खोदें मान लीजिए आखिरकार, क्या समझे!
थोथे वर्ण-जाति पर करता मूरख तू किसलिए गुमान
सब ही बने चाम के इस जग, सबकी भइया जाति चमार, क्या समझे!
अपनी-अपनी जड़ें त्यागना कभी नहीं होगा आसान
रोटी-बेटी जाति बीच ही सब देते हैं विविध प्रकार, क्या समझे!
युद्ध और व्यवसाय रहे हैं किस युग यारो एक विधान?
वणिक-पुत्र के हाथ न शोभित होते तीर और तलवार, क्या समझे!
केवल काँव-काँव ही बोलें, काँव-काँव जिनको आसान
काग पींजरे पढ़ वेदों को कैसे लेंगे बुद्धि सुधार, क्या समझे!
दूध मलाई चट कर जाये चढि़ कुर्सी सत्ता का श्वान
नोच रही बिल्ली-सी जनता खम्बे को होकर लाचार, क्या समझे!
समझदार घर रार न पाले लखि तिय को लाये मुस्कान
घर की खाँड़ किरकिरी लागे गुड़ पड़ोस में चखें गँवार, क्या समझे!
एक अपाहिज लोकपाल को लाने पर इन सबका ध्यान
गूगों के मुखिया बहरे हैं, अंधों के काने सरदार, क्या समझे!
अपने हाथ खुरपिया भारी राह चलत में देति थकान
पर-कंधे पै रखा फावड़ा लगे बीजना के सम भार, क्या समझे!
पीये छाछ मारकर फूकें दूधजले की यह पहचान
रस्सी देखि सांप का काटा करता भारी चीख-पुकार, क्या समझे!
जने-जने का मनुआ राखत वैश्या है अब बाँझ समान
हास-दान देने वाले के नैनों मिले अश्रु की धार, क्या समझे!
लोकतंत्र में बने हुए हैं अंधे सब कानून महान
चित भी इसकी पट भी इसकी, सब कहते इसको सरकार, क्या समझे!
जितकी ब्यार उतई बरसाऔ गेंहू ज्वार बाजरा धान
पत्थर में कूआ के खोदे कब मिलती पानी की धार, क्या समझे!
कालेधन का करे आकलन अफसर बैठि बीच दालान
मंत्री के सुत बता रहे हैं सोलह चौके होते चार, क्या समझे!
सज्जन पास बैठकर आता मन उदारता-भरा विधान
पानी पीजे छनि-छानि के, गुरु बनाइये सोच-विचार, क्या समझे!
लोग देखते खड़े तमाशा, बढ़े न कोई मुट्ठी तान
निबलहिं अगर धींगरा मारै रोबन देई नहीं मक्कार, क्या समझे!
गूँगे-बहरे करें सभाएँ अहंकार जिनमें अभिमान
नकटे-बूचे सबसे ऊँचे दें सज्जन की लाज उतार, क्या समझे!
नाम वसंत किन्तु है पतझर, जल के भीतर रेगिस्तान
बस बाहर की चमक-दमक है, बेर रखे गुठली का भार, क्या समझे!
बाप बिना क्या बेटी शादी, माँ बिन पले नहीं सन्तान
भइया बिना सनूना सूना, बिना धार चाकू बेकार, क्या समझे!
तीन लोक से लीला न्यारी रोम जले ‘नीरो’ अन्जान
मस्तराम मस्ती में बस्ती फुँकी देख खुश होत अपार, क्या समझे!
भूल टैंट अपने नैनों के काने के अधरों मुस्कान
आसमान पर थूक रहे हैं सब के सब बौने किरदार, क्या समझे!
खुद को कहे सती-सावित्री नगर-वधू-सा जिसका मान
उछल रही है चलनी जिसके भीतर देखे छेद हजार, क्या समझे!
आगे कूबर पीछे कूबर पर बाजे सुन्दर धनवान
मैराथन दौड़ों में देखा लूले-लँगड़ों का सत्कार, क्या समझे!
तीन बुलाये तेरह आये सब का रसगुल्लों पर ध्यान
टेड़ा बहुत निभाना दावत घड़ा चीकने रिश्तेदार, क्या समझे!
उनका करे क्रोध भी मंगल जो होते हैं साधु-समान
बादल गरजे, दामिनि दमके, किन्तु करे जल की बौछार, क्या समझे!
बनता सिलकर तन की शोभा, कैंची से कुछ कटकर थान
सन सड़कर रस्सी बन जाता, बाती जल करती उजियार, क्या समझे!
पानी लाओ चाय पिलाओ और रखो आगे मिष्ठान
कौन नहीं अफसर खुश होता इस युग लखि नोटों में भार, क्या समझे !
बूँद-बूँद से घड़ा भरे है, पल-पल बढ़ते हो उत्थान
रत्ती-रत्ती के जोड़े से इक दिन बँधता हाथी द्वार, क्या समझे!
मजबूरी का नाम शुक्रिया अच्छी लगे बेसुरी तान
पतरी-मोटी कौन देखता मक्का की रोटी को यार, क्या समझे!
कूआ से घर तक जाना भी भरि मटका अति कष्ट समान
गंजी पनिहारिन के सर पर रखी ईंडुरी काँटेदार, क्या समझे!
दाँत न देखो उस गइया के जिसको किया गया हो दान
झट सौ बार परखिए लेकिन आयीं तोपें शस्त्रागार, क्या समझे!
कपड़े की दूकान कोयला-राख बेचना कब आसान
साथ-साथ कब होता यारो इत्र-हींग का कारोबार, क्या समझे!
चोरों से घर की रखवाली करवाना मूरखपन मान
छोड़ा जाय चटोरी कुतिया बूते नहीं जलेबी-थार, क्या समझे!
एक पंथ दो काज बनावै होती वो हर चीज महान
रई न केवल छाछ निकारे घी को भी सँग देति निकार, क्या समझे!
फटे दूध के बीच जमामन डाल दही मिलता नहिं मान
तेल नहीं बालू से निकले मथो भले ही सौ-सौ बार, क्या समझे!
कंड़ा-पाथन भाग गयी झट घर में आये जब मेहमान
चाय कराह-कराह बनाये घर में मीयाँ तावेदार, क्या समझे!
ककड़ी के चोरों को फाँसी, देशद्रोहियो का सम्मान
‘सत्यमेव जयते’ के नारे लिख-लिख मगन होय सरकार, क्या समझे!
पेटू मरे पेट की खातिर, नामी देतु नाम पर जान
धरती ऊसर चाहे सूखा, संत चाहता सुख संसार, क्या समझे!
भूखे को रोटी की चाहत, नेता चाहे सत्ता-शान
धूप माँगता है खरबूजा, माँगे आम मेह की धार, क्या समझे!
बना दिया माहौल सभी ने नयी बहू को नर्क समान
ननद-जिठानी चरें मखाने, जच्चारानी पतली दार, क्या समझे!
नंग किराये पर रहता है किन्तु महल का करे बखान
बिना चून के सौ-सौ रोटी ऐसे होती हैं तैयार, क्या समझे!
एक-एक मिल होते ग्यारह, सभी काम होते आसान
एक हाथ से बँधे न पगड़ी, एक हाथ ताली नहिं यार, क्या समझे!
सड़क नहीं कमरे आलिंगन होता नैतिक, पाता मान
नाक दिखे आंखों का काजल तो देता है मन को भार, क्या समझे!
घोड़े से गिर शान न जाती, नज़र गिरे से जाती शान
जो सर देता सच की खातिर, माना जाता वह सरदार, क्या समझे!
केवल कोरे समझोतों से क्या सुधरेगा पाकिस्तान
बिन आदेश मुल्क पै भारी सेना के अच्छे हथियार, क्या समझे!
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+ रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
Mo.-9634551630