कई शामें शामिल होकर लूटी हैं मेरी दुनियां /लवकुश यादव “अज़ल”
कई शामें शामिल होकर लूटी हैं मेरी दुनियां,
अजी ये मामला एक रोज का नहीं लगता।
फलक पर बैठ कर देखता रहूं मैं चाँद को अकेले,
अजी ठंड है और ठंड में तो चाँद भी नहीं निकलता।।
रक़ीब नहीं दे सकता वो खुशियों का आंगन,
ये हुस्न फानी है हमेशा ही नूरानी नहीं रहता।
कई शामें शामिल होकर लूटी हैं मेरी दुनियां,
अजी ये मामला एक रोज का नहीं लगता।।
चाक है दामन गुमसुम हुआ है कैसे ये आँगन,
जश्न-ए-शाम, दिल-ए-जाम हमेशा नहीं मिलता।
कृष्ण,मोहन,कन्हैया,मुरलीधर की बात मत करो,
यहाँ राधा सा हमसफ़र सबको नहीं मिलता।।
सपनों की परछाईं में ख्वाबों का मनोरम दृश्य देखो,
हकीकत में यहाँ सभी को दिलबर नहीं मिलता।
फलक पर बैठ कर देखता रहूं मैं चाँद को अकेले,
अजी ठंड है और ठंड में तो चाँद भी नहीं निकलता।।
अज़ल कैसे रौशन है ज़िन्दगी के साज तुम देखो,
उसका चेहरा तो पहले जैसा नहीं लगता।
कई शामें शामिल होकर लूटी हैं मेरी दुनियां,
अजी ये मामला एक रोज का नहीं लगता।।
लवकुश यादव “अज़ल”
अमेठी, उत्तर प्रदेश