कई बार सोचती हूँ
कई बार सोचती हूँ
तुम्हें पलट कर कह दूँ
कि कोई नही रहता वहां
क्यूँ तकते हो उसे…?
क्या है गिला… ?
जिसे कहते हो तुम उस से
आओ तुम्हारे तुम्हारे सारे प्रश्न मैं सुनू
सारे दुख अपनी पलकों पे ही चुनू
पर शब्द उलझ जाते हैं होठों पे,
कह नही पाती,
कि जीवन जीवन में ही उलझा होता है
शून्य ही तो विराट का उल्टा होता है
कभी-कभी लगता है कह दूँ
आस -निरास में तैरना ही तो जीवन है
और ढलान से उतरना, चुपचाप बह जाना…
…सिद्धार्थ