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13 Jun 2023 · 1 min read

कई चोट हृदय पर खाई है

कई चोट हृदय पर खाई है
बस पीर ही पीर पाई है
झरनों से अधिक धारा मैंने
निस-दिन आँखों से बहाई है

बागो में जाना छोड़ दिया
भंवरों को बुलाना छोड़ दिया
तरुवर पर बैठी चिड़ियों से
मैंने बतियाना छोड़ दिया

वसंत ऋतू पतझड़ लगती है
सावन में अगन बरसा करती है
घास पर बिखरी ओस की बूँद
पाँव में काँटों सी चुभती है

अधरों से बंसी लगानी नहीं है
कोई धुन मुझे बजानी नहीं है
साँझ ढले ढलते सूरज को
विरह वेदना सुनानी नहीं है

दर्पण में निहारना छोड़ दिया
बालों को सँवारना छोड़ दिया
‘धरा’ मैंने अपने कपड़ों पर
अब इत्र लगाना छोड़ दिया

त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)

2 Likes · 461 Views
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