और मैं मौन था…
सन्नाटा पसरा था
अंधेरा बिखरा था
तिलस्म टूटा ना था
और मैं मौन था
अचानक सुनाई दिए शोर से
मन के किसी छोर से
मैं परिचित न था
और मैं मौन था…
शब्दों का जो जाल बुना
वो मेरे अंतर्मन ने चुना
भीतर ठहराव न था
और मैं मौन था…
निकल पड़ा अंतहीन सफर पे
रुक जाऊंगा कहीं सिफर पे
सोचा ये गणित न था
और मैं मौन था…
सुख दुःख के अध्याय पलटे
जीवन के पर्याय उलटे
मुक्ति का बोध न था
और मैं मौन था…
मृत्यु शय्या पर पड़े हुए
प्रश्न डट कर खड़े हुए
कोई उत्तर न था
और मैं मौन था…
-विवेक जोशी “जोश”