और दीवार ढह गई….
कब तक वक्त के थपेड़ों का सामना करती ,
कब तक हालातों से उलझती और सुलझती ,
संघर्षों की कड़ी धूप से टकराती हुई ,
टूटकर बिखर गई …
कब तक घर की दिमकों से खुद को बचाती ,
ज़हरीले बिच्छुओं ,सांपों से डरती , सहमती ,
पल पल अपने मालिक को याद करती हुई ,
चरमरा गई …
घर के चिराग से ही लगी थी आग ,
किसी गैर ने तो ना लगाई थी आग ,
इस आग में झुलस कर रह गई ,
अरमानों / ख्वाइशों की सारी रंगत घुल गई …
बेरंग हो गई ….
हम सोच – समझ भी ना पाए ,
हम भी खड़े थे उस दीवार के सहारे,
बड़ा सुकून देते थे दूर से ही सही उसके साए ,
हमें कुछ खबर भी ना होने पाई ,
बदकिस्मती की ऐसी आंधी अाई..
और वह दीवार ढह गई …