और ज़रा भी नहीं सोचते हम
और ज़रा भी नहीं सोचते हम,
क्या उस पर गुजरी होगी।
बोल देते हैं तपाक् से….
करती क्या हो तुम सारा दिन?
मां बाप ने कुछ सिखा कर नहीं भेजा?
मोबाइल से फुर्सत मिले तब ना..
उसकी भी नम होती हैं आंखें
उसका भी टूटता है दिल
बस आंखों पलकों पर छुपा
वो फिर काम करने लग जाती है
और ज़रा भी नहीं सोचते हम….
वो भी थकती है
आपके घर को मकान बनाने
आपके वंश को आगे बढ़ाने
अपना नया संसार सजाने
सिर्फ एक तुम्हारा हाथ थाम
तुम्हारे सारे रिश्तों के कर्ज चुकाने
आ जाती है अपने बाबा का घर छोड़
ये सब बोलने से पहले
ज़रा भी नहीं सोचते हम..
तुम अगर ससुराल दो दिन रहो
मज़बूरी में ही सास ससुर को
का अस्पताल लिजाना
या फिर कोई काम वो तुम्हे बोले
तो मुंह में बोलते रहते हो
क्या यार कहां आकर फंस गया।
नौकर ही बना के रख दिया।
सोचा था दो दिन आराम करूंगा
तो क्या ये हक सिर्फ तुम्हारा है
उसका नहीं ,जिसको हमेशा ससुराल में ही रहना है
और ज़रा भी नहीं सोचते हम
सच में नहीं सोचते हम।
सुरिंदर कौर