औरत
औरत
औरत, जितना धरती होती है
उससे ज्यादा अम्बर होती है,
ऊंचाइयों में पहाड़ होती है,
गहराई में समंदर होती है.
वो जगत नियंता की जननी,
सृष्टि में सबसे सुन्दर होती है,
न्योछावर होने-करने के मूल सुख में,
कभी वो आंधी तो कभी बवंडर होती है.
जिंदगी के आंगन को पलकों से बुहारती
वो आधा बाहर, चौगुना अन्दर होती है,
समर्पण में दिलो-जान देने वाली
अपने पे आ जाए तो सिकंदर होती है.
प्रदीप तिवारी ‘धवल’