औरत…..?
औरत दादी है, माँ है, पत्नी है और बेटी है।
औरत अपने लिए नहीं सबके लिए जीती है॥
सुबह से लेकर शाम तक
दिन रात परिश्रम करती है,
गिला नहीं करती कभी भी
वह आराम कभी न करती है,
घर की रीति रिवाज निभा कर
उगले विष वमन को, स्वंय अकेले पीती है।
औरत अपने लिए नहीं सबके लिए जीती है॥
मायके की सारी शाहजादियां
ससुराल में दासी बन जाती है,
सबकी फरमाईशें पुरी करती
न चैन की नींद वह लेती है,
सास-ससुर की सेवा में रत
उफ्फ कभी न करती, वह प्रेम को तरसती है।
औरत अपने लिए नहीं सबके लिए जीती है॥
बस एक जरा सी गलती पर
महीनों खाल खिंचाई होती है,
सबको मनपसंद खिलाकर वह
बिन खाए थक कर सो जाती है
पूरे परिवार का ख्याल रख कर
यंत्रणा के क्षण में सभी के कष्ट हर लेती है।
औरत अपने लिए नहीं सबके लिए जीती है॥
सास, ससुर, ननद, जेठानी,
रुठे ना कोई उसे डर रहती है,
सबके बीच सहज मुस्कुराना
आफ़त में उसकी जान रहती है,
दायित्वों के जंजीरों में बंधी
गृह-स्वामिनी मर्यादा और संस्कार निभाती है।
औरत अपने लिए नहीं सबके लिए जीती है॥
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