औरत
सदियों से टुकड़े होते रहे तेरे
कभी पैंतीस कभी पैंतीस हज़ार
पर मूर्ख फिर भी न संभली तू
भरोसा करती रही बार बार
पिघल गयी फिसल गयी
फ़ना होने को तत्पर तैयार
आख़िर औरत की औरत रही तू
कुछ और बन के देख इस बार
कब तक फँसेगी पिंजरे कसेगी
बौनी मानसिकता की शिकार
रीति संवेदनाएँ खोखली मान्यताएँ
न बन चर्चा विवाद ख़बर की आहार
उठ जाग चल संभल निकल
समझौता नही स्वाभिमान निखार
खुद में पूरी है तू सम्पूर्ण परिपूर्ण
कर पितृसत्ता पर पुरज़ोर प्रहार
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