औरत के भीतर का ये एहसास
“एहसास”
औरत के भीतर का ये एहसास
जिसे कोई समझ नहीं पाता
और शायद समझना भी नहीं चाहता
दर्द को छिपाती जबरन सी उसकी मुस्कुराहट
खेलता था बचपन, खिलखिलता हुआ यौवन
जाने कब बीत गया, वो खुशनुमा सावन
आज घर परिवार और कामकाज के बीच
अपनों की भीड़ में भी एक अनजाना अकेलापन…
एक एहसास जो दिखाई नहीं देता पर
बेपरवाह सा साथ रहता है हमेशा
जिसे वो महसूस तो करती है मगर
लफ्जों में बयां नहीं कर पाती
भीतर ही भीतर बढ़ता खालीपन
सबके लिए जरुरी फिर भी बेमानी सा वज़ूद
घर परिवार की जिम्मेदारियों, नौकरी की
आपाधापी और अनगिनत अपेक्षाओं के बीच…
एक सेतु की तरह,उस एहसास और सुकून को खोजती हुई
जिंदगी के सौंदर्यबोध से भरी
कल तक थी जो हर गम से बेज़ार
सबको निभाने और काम के बोझ तले दबी आज
अनचाहे..अनजाने ही कब, क्यों और कैसे
एक चिड़चिड़ी और परेशान औरत में
तब्दील होती जा रही है
कोई नहीं जानता..और शायद
जानना भी नहीं चाहता….
दीपाली कालरा