औपचारिकता
न जाने क्यों मुझे लगता लगता है चारों ओर औपचारिकता का माहौल बस सा गया है । हर विषय में औपचारिकता दिखती है ।चाहे आपसी संबंध हों या किसी विषय या समस्या पर चर्चा या वार्ता का आयोजन हो । केवल औपचारिकता का पालन किया जाता है ।और इस तरह चर्चाओं में निकाले गए निष्कर्ष वास्तविकता एवं व्यवहारिकता से परे होते हैं। किसी भी व्यावहारिक एवं नीतिगत विषय पर वास्तविक विश्लेषण ना किया जाकर किसी वर्ग या व्यक्ति विशेष पर केंद्रित बिंदुओं पर ही चर्चा एवं निष्कर्ष सीमित रहते हैं ।जिसके फलस्वरूप इस प्रकार की चर्चाओं में व्यावहारिकता का अभाव रहता है।
आज के दौर में अधिकांश लोगों को औपचारिकता पालन करते देखा गया है ।दरअसल लोगों की मानसिकता इस प्रकार हो गई है की औपचारिकता का पालन एक सभ्य समाज मे निर्वाह करने की आवश्यकता मान लिया गया है। यह कुछ हद तक तो ठीक है परंतु इसका अतिरेक बनावटी व्यवहार को प्रकट करता है। मेरे विचार से हमें अपने व्यवहार में वास्तविकता का समावेश करना चाहिये और दिखावे के लिए किए गए बनावटी व्यवहार से दूर रहना चाहिये । किसी भी प्रकार का छद्मवेशी व्यवहार हमारे चरित्र की विसंगतियों को प्रकट करता है। और दूसरों के द्वारा हमारे चरित्र का नकारात्मक आकलन करने के लिए उन्हें बाध्य करता है।
दरअसल हमारे समाजिक जीवन में व्याप्त सामाजिक मान्यताएं एवं दिखावापन भी काफी हद तक हमारे दिखावटी व्यवहार के लिए जिम्मेवार है। जिसे हमने प्रबुद्ध समाज की औपचारिकता का नाम दे दिया है। जिसका ना चाहते हुए भी हम पालन करने के लिए बाध्य हो जाते हैं । हमें इस विषय में चिंतन करने की आवश्यकता है कि हम इस तथाकथित औपचारिकता का पालन करते हुए कहीं हमारे व्यवहार को बनावटी तो नहीं बना रहे हैं ।जो हमारे अन्तःनिहित संस्कार और आचरण को प्रभावित कर रहा है ।
जिसका दूरगामी प्रभाव हमारे चरित्र पर पड़ रहा है।