ओ वृन्दावन के गिरधारी, मैं जाऊ तूज पर वारि…
ओ वृन्दावन के गिरधारी, मैं जाऊ तूज पर वारि…
मैं धन्य हो जाऊ जब दर्शन दे आप मुरारी,
गोकुल में मिट्टी की वो छोटी सी रज,
ढूढ़ती है कहाॅ हो मेरे कृष्ण…..
गोपिओ की वो पुकार आज भी उठती है,
यमुना कीनारे में आती लहेरो से पूछती है,
मथुरा की वो राहे आज भी मृदु पाँव स्पर्श को तरसे है,
माखन – मिश्री भी आपको स्वाद देने को तरसे है,
रास रचिता ओ कनैया राधा का रसीला,
तूम बिना वो लचक भी अपने लयमें आपको तरसे है,
बाँसुरी भी अपने अस्त्तित्व को,
आज भी सूर से नहलाती है..
फिरभी हर एक सूर संगीत में नटवरको तरसती है…!!
कहते है ऐ वेद पुराण गीतामें समाए नारायण…
हर एक श्लोक में मोती माला के भांति वाणी स्वरुपे
बिराजते है वज्रबासी….
तड़पता है ऐ जगआलम,
अश्रु की धारा से धोवे चरण कमल…
अब तो आजा जग के नीलकमल….
मन्वा व्याकुल है, धरा व्याकुल है…
शोर मचाते है सारे जिव…..!!
अब देर न कर, वर्ना दब जाएँगी उम्मीद की लहर,
थम जाएँगी शांशो की ड़ोर…..!!!
जन्म जन्मो की प्यास आतुरता के साथ,
दब जाएँ ना मिट्टी में आज……..!!!!