ओ राही न सोच मंज़िल की
चंद अश्आर :
वाजिब है तुम्हारा रूंठना
मगर यह तो देख लेते
मुझमें मनाने का-
शऊर है या नहीं।
ओ राही न सोच मंज़िल की
चलता रहेगा पहुँचेगा कहीं न कहीं
वैसे भी किस्मत के आगे
किसकी चली है।
मैं नहीं होना चाहता हूँ बेचैन
नहीं उग्र
बस रफ़्ता रफ़्ता यों ही चलती रहे
ज़िन्दगी।
कहीं तुम वही तो नहीं
जिसके ख़यालों से झनझना उठता हूँ
सनसना उठती है दिमाग़ की पतीली
मन में आने लगता है उफान।
जयन्ती प्रसाद शर्मा