साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की याद में लिखी गई एक कविता “ओमप्रकाश”
30 जून 1950 को
मुज़फ्फरनगर के गाँव बरला में
पैदा होते ही बन गया था
मैं एक विशेष वर्ग का बालक
लग गया था ठप्पा मुझपे चुहड़े और चमार का।
पढ़ने भेजा गया मुझे भी स्कूल
यहीं की थी मेरे पिता छोटन ने
व्यवस्था के खिलाफ एक भूल
जब तुमने मेरी इच्छाओं को दबाया था
हेड मास्टर साहब।
मैंने भी कर लिया था प्रण तभी से ये कि
मैं दिखलाऊंगा तुम्हें
तुमसे बड़ा बन कर।
मेरी माँ ने जूठन को ठुकराकर
दिया था मुझे वो साहस
जिसे मैं बन पाया
बालक मुंशी से ओमप्रकाश।
मैंने जैसा जीवन जिया उकेरा उसे
शब्दों में ‘जूठन’ के रूप में
होकर अनुवादित नौ से ज्यादा
देशी व विदेशी भाषाओं में
‘जूठन’ ने फैलाया समूचे विश्व में
दलित साहित्य का प्रकाश
मैं हूँ सफाई कर्मचारियों की समस्याओं
पर ‘सफाई देवता’ लिखने वाला ओमप्रकाश।
आज मेरी रचनाओं ने खींच दी हैं
उनके सामने एक बड़ी लकीर।
पढ़ते है उनके बच्चे भी
उनके पुरखों के द्वारा किये गए
अमानवीय व्यवहार की कहानियां
मेरी किताबों में,
विश्विद्यालय के पाठ्यक्रम में
होने को परीक्षा में अच्छे अंको से पास
मैं हूँ दलित साहित्य का महानायक ओमप्रकाश।
‘बस्स ! बहुत हो चुका’, ‘अब और नही’
सहेंगे हम ‘सदियों का सन्ताप’
मेरी रचना ‘ठाकुर का कुँआ’ ने कर दिया
भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का पर्दाफाश
मैं हूँ ‘घुसपैठिये’ और ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’
रचने वाला ओमप्रकाश।
मेरी देह 17 नवम्बर 2013 को
छोड़कर चली गयी यह संसार
मगर मेरे बच्चे ‘नरेन्द्र’
तुम व्यर्थ मत जाने देना
मेरा साहित्य रूपी भंडार
जाओ घर-घर फैलाओ इस साहित्य रूपी ज्ञानपुंज को
बदलो उनके जीवन को जो जी रहे हैं,
जीवन अभी तक बेकार
एक बार यदि बाबा के विचारों को पढ़ गये वे लोग
तो कोई भी कुरीति न फ़टकेगी उनके पास
मैं हूँ दलितों में ऊर्जा भरने वाला ओमप्रकाश।
कितनी भी कर लो तुम कोशिशें
ऐ मनुवादियों
हटा दो मेरी भावनाओं को शिक्षालयों से
कभी न कर पाओगे तुम मेरे विचारों की लाश
मेरी साहित्यिक जाग्रति ने पैदा कर दिए है
असंख्य ओमप्रकाश।