“ओट पर्दे की”
ओट की आड़ में एक प्रीत की मुस्कान,
देख रहा था चंद्र चकोर को ,एक ही चितवन।
पर्दा शब्द ही नही, इसके भाव है ,
दुल्हन करती है घूँघट ,चुनरी की आड़ से ।
बचपन मे माँ, बच्चों के कष्ट होने पर,
छिपा लेती है आसूं , आँचल के आड़ में।
आँखों के पर्दे है, जो होते हैं लिहाज,
चेहरे पर भी पर्दे हैं ,जो होते हैं समाज।
गलत जो कर्म करते हैं, उनके रूह पर पर्दा,
बदन को ढक कर चलते हैं ,ऐसा भी पर्दा।
मंच पर होता अभिनय है ,वो सच्चा नही होता,
पीछे क्या क्या होता है, आगे पड़ा पर्दा पड़ा होता।
बुरे विचार लिए मासूम ,बनकर फिरते है,
पर्दे के ओट में ,जरा भी न हिचकते हैं।
कभी पर्दे की आड़ में,छिपे होते है जज्बात,
कभी कितना भी हो पर्दा, लोग होते हैं बेपर्दा।
पर्दा कितना भी हो भारी,
अचानक हवा के झोकों से,गिर जाता है पर्दा।
एक ऐसा भी ,कला ओट सिखाती है,
बेपर्द होने से,जो सदा बचाती है।
ओट की आड़ से ,एक आवाज आती है,
जो बनी इज्जत को ,बचाती है।
अभी पर्दा न गिराओ,दास्तां बाकी है,
नया किरदार आएगा,जो नजरों को देखना बाकी है।
पर्दे के ओट में ,जाने कितने इरादे होते हैं,
जो पर्दे के ओट में,तमाशे करते हैं।
एक पर्दा बादलों का, जो सूर्य को ढकता है,
एक पर्दा घर पर,शान से,लटकता है।
एक पर्दा कभी तन को,ढकता है,
एक पर्दा कभी मन को ढकता है।
कुछ ऐसे पर्दे है ,जो घर मे छिपते है,
घुटन,आंसू,तड़प,पर्दे की ओट में जीते हैं।
गरीबी ऐसी होती है, जो बिन पर्दे के होते हैं,
कमाई कुछ ना होती है, वो थाली भी छिपाते है।
कही होती है जो ,सुंदर सी प्रियतमा,
नजर लग जाये ना ,खिड़की पे भी पर्दा है।
यह अंदाज बयां का पर्दा है, जो कविता को बना डाला।भाषा के पर्दे में रहते है शब्द, शब्दों के पर्दे में छिपे हैं अर्थ।
एक पर्दा जीवन के दफन मे,जो ढकता है मानव के तन में।।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव ✍️
प्रयागराज