ऐ ज़िन्दगी!
ऐ ज़िन्दगी !
किस मिट्टी से बनी है तू ?
मिट्टी नहीं
शायद पत्थर से,
पत्थर भी नहीं
शायद किसी और ही चीज़ से,
पल-पल में बदलती है
अनगिनत रंग,
कैसे समझूं
तेरे जीने के ढंग ?
अभी कल ही तो देखा था तुझे
उस
बिगड़ैल लड़की की तरह
जो
माँ-बाप की गैरमौजूदगी में
बुला लेती है
अपने बॉयफ्रेंड को
बन्द दरवाजे के पीछे
फुसफुसाहटों के बीच
भरती है सिसकारियां
बेखबर इस बात से
कि
कितनी नज़रें गड़ी हैं उसके दरवाजे पर
देखने को कुछ अनचाहे दृश्य
कितने कान खड़े हैं
सुनने को कुछ अस्फुट शब्द
कितने दिमाग लगे हैं
निकालने को कुछ गर्हित अर्थ
खेलती रही तू
मेरे जैसे
न जाने कितनों की भावनाओं से
ढूंढ़ता रहा मैं तुझे
चाय की प्याली और कविता के बीच
पुकारता रहा मन ही मन
होठों को भींच
डूबती रहीं
एक-एक साँस में कई-कई उम्रें
पर
नहीं रुकीं
तेरी उद्दाम लहरें
और
आज ओढ़ लिया तूने
सती सावित्री का आवरण
दिखाने लगी
अपना पवित्र आचरण
सौंप दिया मुझे वह सब कुछ
जो कभी मैंने चाहा था
लेकिन क्या सोचा तूने
अपने न्याय
और मेरी हाय के बारे में ?
क्या करूँगा लेकर
मैं तेरा सर्वस्व ?
जबकि,
मैं चल नहीं सकता
देख नहीं सकता
सुन नहीं सकता
और, शायद
बोल भी नहीं सकता।
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’