ऐ पड़ोसी सोच
गुफ्तगूं की पेशकश में,
दिखती हैं मजबूरियां।
वरना पाव भर के गोले
दागते वे दे बयां।
ऐ पड़ोसी सोच फिर से,
एक नहीं दस मर्तवा।
बूत परस्तों के यहां की,
क्या रोटी मंजूर है?
मुशरिकों के घर का खाना,
शायद न जायज लगे।
क्या मुनासिब होगा गंदुम?
काफिरों के देश का।
फतवा जारी हो गया गर,
ये आटा हराम है।
मरें, लेकिन नहीं लेंगे,
गंदुम दुश्मन मुल्क से ।
वक्त गाढ़े पर तुम्हारे,
पेशकश की थी एक बार।
कर दिया इनकार तुमने,
जो नहीं वाजिब लगी।
मट्ठे से भी जल न जाऊं,
सोचता हरदम यही।
मदद करने की हिमाकत,
इस लिये करते नहीं।
अपनी अपनी शान होती,
अपनी अपनी नाक है।
अदना आखिर क्यों उड़ाये,
खिल्ली किसी मजबूर का।
मुझको इतना ही है कहना,
नारा मेरा है यही।
जियो और जीने को मुझको,
दहशतगर्दी बंद हो।
बूत परस्ती से ही सीखा,
दुनिया एक परिवार है।
कौम की तहजीब मेरे,
नेकी में आगे रहो।
झोली को फैला के देखो,
रहेगी खाली नहीं।
न करे मायूस कतई,
मेरे भारत का सदर।
फ़क़त परेशां किया है,
हरदम करके दुश्मनी।
जबकि हमने दुआ मांगी,
तू भी खूब आबाद हो।
औरों खातिर गड्ढा खोदा,
खुद ही उसमें गिर गये।
सच कहा है मुर्शिदों ने,
बोए जो काटे वही।
मौला के घर देर है पर,
न कभी अंधेर है।
होती न आवाज कोई,
उस खुदा की मार में।
सतीश सृजन, लखनऊ.