ऐसा मेरा गाँव न हो (कविता)
ऐसा मेरा गांव न हो ।।
धर्मावलंबी आपस में लड़ते रहें
फुट के बीज बोकर छलते रहें ,
मानवता कराहती हो जहाँ
और सर्वधर्म सदभाव न हो ,
ऐसा मेरा गांव न हो ।
भूल गयी हो कोयल की कूक
पछियो का कलरव भी गया हो टूट
दरख्तों से उजड़े हो उनके नीड़
और मुंडेर पर कौए की कांव न हो ,
ऐसा मेरा गांव न हो ।
सबकी आशाएं नित टूटती रहे
गोंरियो की अस्मत जहाँ लूटती रहे ,
मित्रता पर भी हो संदेह जहाँ
और प्रेम का कोई भाव न हो ,
ऐसा मेरा गांव न हो ।
सम्बेद्नाओ का मर्म न समझे कोई
भावनाएँ जहाँ रहें नित्य सोई ,
रोज पिता को जहाँ दुत्कार मिले
और ममता का कोई छांव न हो ,
ऐसा मेरा गांव न हो ।
न हो खनकती कलाई जहाँ
गोरिया करती हो न सृंगार,
तनहाई में सजकर जहाँ
प्रियतम से मिलाने का चाव न हो ,
ऐसा मेरा गांव न हो ।
मानवता जहाँ कराहती रहे
हर गली में बसे शरारती रहें ,
मेहमानों को मिले न सम्मान जहाँ
और “तनहा”के लिए कोई ठाँव न हो ।
ऐसा मेरा गांव न हो ।।
रचना :- संतोष तनहा