ऐसा एक ख्याल है
ऐसा एक ख्याल है,
कि कभी रोज, जब ये सूरज नहीं दिखेगा
बादलों के सहारे जब उजाला बिखरेगा
सड़कों पर कोई छाया
धुंधली सी होगी,
मन में इश्रत की चाह भी
फीकी सी होगी।
तब राहें तो दिखेंगी,
जहां जाना है, वो मंजिले भी होंगी
ईर्द-गिर्द की हलचल भी
नजर में होगी,
कौन क्या कहता कहता है.
इसकी खबर भी होगी।
लेकिन मन विह्वल है
आज मन जरा खींचा खींचा सा है,
राहें तो वहीं हैं,
मगर सफर धुंधला धुंधला सा है।
यहां से अब मंजिल
और कितने दूर है, मालूम नहीं।
आसमान में बिखरे बादल
साथ-साथ और कितने दूर हैं, मालूम नहीं।
ख्याल ये भी है, कि जिस ओर जा रहे
उस ओर कोई रौशनी हो,
खुला आसमान हो, बेहतर जिंदगी हो।
पर लगता है,
कि असलियत इससे कहीं दूर है।
क्योंकि मंजिले,
जिन्हें कभी नहीं देखा
ऐसी ख्वाहिशें बादलों के पीछे
फलक और उफ्क के दरमियान
बहुत दूर हैं।
जिन्हें सोचा तो जा सकता है,
लेकिन कभी देखा नहीं,
और ना ही कभी छुआ जा सकता है।
ऐसा सफर, एक ख्याल ये भी है