ए मन मेरा हुआ चंचल
ए मन मेरा हुआ चंचल न जाने क्यों बहकता है l
मेरे घर के रहा जो सामने छत पर टहलता है ll
समा है चांदनी रातों का उसपर मेघ काले हैं l
हवाएं चल रही हैं जोर पल्लू भी सकता है ll
नहीं उसको पता कुछ भी मेरी अपनी जो हालत है l
मेरा मन मोर है व्याकुल यह मौसम भी समझता है ll
हवा का साथ ना देना लटों का पीछे ही रहना l
कदम तो आगे बढ़ते हैं लगे मन पीछे रहता है ll
रहा जो दिल में ही अपने उसे अब ढूंढना कैसा l
करूं मैं बंद जब आंखें वो मेरे दिल में रहता है ll
नहीं भूला अभी तक तिरछी नजरों देखना उसका l
हुई मुद्दत गए उसको “सलिल”अब तक महकता है ll
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश l