ए. और. ये , पंचमाक्षर , अनुस्वार / अनुनासिक , प्रयोग और उपयोग
किसी शब्द के अंत में “ए” का प्रयोग ज़्यादातर तब किया जाना चाहिए जब हम किसी वाक्य में अनुरोध कर रहे हों , नम्रता व सम्मान मृदुता के भाव हों जैसे ~ दीजिए , कीजिए, आइए, बैठिए, सोचिए, देखिए
शुभकामनाएँ , भावनाएँ , कामनाएँ , इत्यादि |
लेकिन जब वाक्य में आदेश भाव परिलक्षित हो तब “ये” देखने में आता है । जैसे~ बुलायें , हँसायें , बनायें , खिलायें, सजायें , लुटायें बजायें, दिखायें, सुनायें आदि
वाक्य. विन्यास की दृष्टि से हिन्दी में कुछ शब्दों में ~
जैसे ~ लिये/लिए,~~~ गये/गए,~~ दिये/दिए)
में ” ये ” और ” ए ” के प्रयोग के यदि नियम पर विचार करें तो…..
मुझें इतना पता है कि जब दो, एक जैसे शब्द एक के बाद एक आते हैं तो पहले में ~ ” ये ” और दूसरे में “ए ” का उपयोग होता है।
(जैसे~ वह चुन लिये गये हैं ×
वह चुन लिए गए हैं ×
वह चुन लिये गए हैं √
परन्तु जहां एक ही शब्द उपयोग में आ रहा हो
जैसे ~ ” राम ने उसके लिये काम किया है ” या ” श्याम ने उसके लिए काम किया है ” दोनो सही थे ? और दोनो में से कोई भी उपयोग करते थे और आज भी प्रयोग कर रहे है , किंतु सन् 1959 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा गठित राज भाषा हिंदी समिति द्वारा हिंदी में बहुत कुछ सुधार व दूसरी भाषा के कई शब्द हिंदी में अपनी शर्तो पर स्वीकार किए हैं |” य ” जहाँ अस्वीकृत किया गया है, वहाँ ” ए ‘ का प्रयोग सही माना है
जैसे ~ चाहिये × / चाहिए √ | नये × नए √
निर्णय उचित लगता है , जहां तक ‘उसके लिए’ (संप्रदान कारक हेतु) पदबंधों में ‘लिए’ का सवाल है, यह मुझे सही लगता है ‘लिये’ की तुलना में ” लिए ” सही है ।
इस प्रकार ~ गये की जगह गए √ / दिये की जगह दिए √ उचित है
“‘लेना’”. क्रिया पदो के लिए ” लिये ” प्रचलित था किंतु आधिकारिक मानक हिंदी में ‘लिए’ की संस्तुति है ।
” ‘जाना’” के क्रियापद से “गये ” ‘गया’ (या गआ ) तथा ‘गयो’ (स्थानीय बोली में प्रयुक्त गओ?) स्वीकारते थे , तो नियमों की एकरूपता व मानक हिंदी के लिए ‘गयी’, ‘गये’ की जगह ” गए ” स्वीकृत किया गया है | हिंदी व्याकरण में अभिरुचि और भाषा में सम्वर्धन के पक्षधर यह परिवर्तन स्वीकार कर लिखते है , जो मुझे भी उचित लगता है |
किंतु जिन शब्दों में मूल रूप से ‘य’ श्रुतिमूलक अंग है , तब वह बदला नहीं जा सकता। ( श्रुति मूलक = स्पस्ट वर्ण सुनाई देना ) जैसे –
पराया – पराये √ पराए × || , पहिया – पहिये √ पहिए × || , रुपया – रुपये √ रुपए × || करुणामय – करुणामयी √ ( स्थायी, अव्ययीभाव आदि) करुणामए ×
अब जो मानक हिंदी से हटकर पुराने ढर्रे से लिखते हैं, तब हम आप क्या कर सकते हैं, वह लोग तो आज भी होय, रोय, कोय, तोय, मोय का प्रयोग करके लिखते हैं ,कुछ कहते हैं कि यह देशज शब्द हैं , मेरा कहना यहाँ यह भी है यह देशज शब्द भी नहीं हैं , क्योंकि -देशज शब्द का भी स्थानीय क्षेत्रानुसाार क्रियानुसार आशय अर्थ होता है |
क्रिया पदानुसार – होय से होना , रोय से रोना , कोय से कोई तोय से तेरा , अर्थ ही नहीं निकलता है | फिर आप यहाँ पूँछेगें कि यह रो़य तोय क्या हैं ? यहाँ हम आपसे निवेदन करना चाहेगें कि यह हिंदी में ” मुख सुख ” शब्द कहलाते हैं , जिनका उच्चारण तो करते हैं , पर इनका स्थान साहित्य या आम लेखन में भी नहीं है
जैसे – मास्टर साहव को मुख सुख से #मास्साब कह देते हैं , अब मास्साब को किसी छंद या आवेदन पत्र में उपयोग तो नहीं करते हैं ।
तहसीलदार को तासीलदार , कम्पाउन्डर को कम्पोडर , साहव को साब इत्यादि।
आप कहेंगे कि प्राचीन कवियों ने उपयोग किया है , लेख लम्बा करने की अपेक्षा संक्षेप में इतना कहूँगा कि पहले सब गायकी और लोक भाषा में लोगों को समझाते थे , कोई विधानावली नहीं थी |
इसी तरह व्यंजन ‘य, र, ल, व’ तथा स्वर ‘इ, ऋ, ऌ, उ’ के क्रमशः समस्थानिक हैं । ऐसी स्थिति में ‘य्+ई’ के उच्चारण ‘यी’ तथा ‘ई’ में अंतर साफ-साफ मालूम नहीं पड़ता है । यही बात ‘वू’ एवं ‘उ’ के साथ भी है । ‘र्+ऋ’ के साथ भी यही है, जो कइयों को ‘रि’ सुनाई देता है।औ (दरअसल बोला ही वैसे जाता है!) लौकिक संस्कृत तथा हिंदी में ‘ऌ’ तो लुप्तप्राय है । ‘ऋ’ भी केवल संस्कृत मूल के शब्दों तक सीमित है । परंतु इस प्रकार की समानता का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि ‘कायिक’ के स्थान पर ‘काइक’ और ‘भावुक’ के बदले ‘भाउक’ उचित मान लिया जाए |
भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ( शिक्षा मंत्रालय ) में हिंदी राजभाषा समिति है , जिसमें हिंदी भाषा से सम्बन्धित निर्णय हिंदी विद्वान लेते हैं , एक निर्णय यह भी लिया गया है कि #उर्दू के शब्द यदि हिंदी में लिखे जाएं तो #नुक्ता लगाने की बाध्यता नहीं है |
कारण कि उर्दू में नुक्ता लगाने का आशय वर्ण को आधा करना है , जबकि हिंदी में आधा वर्ण लिखने की सुविधा है , तब नुक्ता की जरुरत ही नहीं है।।
आलेख – सुभाष सिंघई एम० ए० हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र
(पूर्व हिंदी भाषानुदेशक आई टी आई )
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अनुस्वार( बिन्दु) और अनुनासिक ( चंद्रबिन्दु) का प्रयोग
अनुस्वार या बिंदु (ं)
“अनुस्वार” जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, अनुस्वार स्वर का अनुसरण करने वाला व्यंजन है यानी कि स्वर के बाद आने वाला व्यंजन वर्ण “अनुस्वार” कहलाता है, इसके उच्चारण के समय नाक का उपयोग होता है, ऐसा आभास होगा जैसे नाक से कहा हो |
एक कहानी के माध्यम से मैं हिंदी वर्ण माला के अनुस्वार या बिंदु (ं) पंचमाक्षर के प्रयोग को निवेदित कर रहा हूँ
एक. प्रदर्शनी लाइन लगाकर दिखाई जा रही थी , सबसे आगे एक शरीफ युवा था , उसके पीछे एक छोटा नटखट बच्चा था , और उस बच्चे के पीछे उसी बच्चे का दादा खड़ा था |
ठीक उसी के पीछे फिर एक युवा खड़ा था , युवा के पीछे दूसरा नटखट बच्चा खड़ा था पर उस बच्चे के पीछे कोई दादा या परिवार का मुखिया नहीं था ,
घटनाक्रम बढ़ चला , दादा जी ने अपने नटखट बच्चे को प्रोत्साहन दिया कि आगे खड़े युवा के कंधे पर चढ़कर प्रदर्शनी देख लो , नटखट बच्चा प्रोत्साहन पाकर युवा के कंधे पर चढ़ गया , और युवा कुछ कह नही पाया , क्योकि उसके पीछे मूंंछे ऐठता उसका दादा खड़ा था ,|
लेकिन दूसरे नटखट बच्चे के पीछे दादा प्रोत्साहन और रक्षा को नहीं था , सो वह बच्चा चुपचाप जमीन में नीचे ही ख़डा रहा |,
बस यही कहानी हिंदी के पंचमाक्षर की है
पंचमाक्षर समझाने के लिए इतना अधिक लिखकर समझाया जाता है कि सामने वाला भाग खड़ा होगा या सिरदर्द से मस्तक रगड़ने लगेगा , , पर मैं सपाट सरल शैली में एक कहानी बतौर प्रयोग ही बतला रहा हूँ ।
सरल सपाट ठेठ शैली में समझिए , बस यह खानदान समझ लीजिए
परिवार. के दादा ताऊ नटखट बच्चे
क वर्ग — क. ख. ग. घ ङ,
च वर्ग ~ च छ. ज. झ. ञ,
ट वर्ग ~ ट. ठ. ड ढ. ण
त.वर्ग. त थ. द. ध. न
प वर्ग — प. फ. ब. भ. म
पहले आप समझिए कि ङ, ञ, ण, न म जब यह आधे रुप में आते है तब नटखट बच्चे बन जाते है जिनकी बिंदी ं बनती है व अनुस्वार का रुप ले लेते है
बच्चे के पीछे यदि दादा बाबा उसी कुल वर्ग का है तो बच्चा आगे वाले के कंघे पर चढ़ जाएगा , क्योंकि पीछे उसको हौंसला देने सम्हालने देखभाल को उसका बाबा दादा है।
सन्दर्भ को संदर्भ लिख सकते हैं , क्योंकि आधा न (बच्चे के पीछे ]उसके कुल त वर्ग का द वर्ण बाबा बनकर पीछे खड़ा है ,व बच्चे को प्रोत्साहित कर रहा है, कि बेटा आगे वाले के कंधे पर चढ़ जा , मैं तो हूँ तेरी रक्षा को ,
इसलिए स के कंधे पर आधा न चढ जाएगा और स बेचारा कुछ कह नहीं पाएगा |
छन्द में छ की छाती पर आधा न चढ़ जाएगा , क्योंकि त वर्ग का द दादा गिरी करते हुए आधा न (अपने नटखट बच्चे ) को प्रोत्साहित कर रहा है , अत: ‘छंद’ ऐसे लिख दिया जाता है।
गङगा = गंगा
क वर्ग का ग आगे पीछे है , अत: बेफ्रिक ङ. ग के कंधे चढ जाएगा
कण्ठ = कंठ. – में आधा ण( बच्चा ) क के ऊपर चढ़ जाएगा क्योंकि सहारे को ट वर्ग का उसका दादा ठ है। सहारे को , बेचारा क कुछ कह नहीं पाएगा।
गन्धारी = गंधारी — आधा न के पीछे उसका दादा ध खड़ा है , अत: आधा न बच्चा ग के कंधे पर चढ़ गया , बेचारा ग चुप ही रहेगा
लेकिन , किसी नटखट बच्चे के पीछे उसके कुल ( वर्ग) का दादा बाबा नहीं खड़ा हो तो बच्चा कुछ नहीं कर पाएगा।
जैसे
सन्मति ~ यहाँ ‘संमति’ नहीं लिख सकते।
कारण आधा न (बच्चे के पीछे उसके कुल वर्ग का दादा बाबा नहीं है।
अत: बच्चा अपने स्वतंत्र रुप में आएगा
य. र ल व श ष स ह क्ष इनका कुल वर्ग नहीं है , यह अपने आधे रुप में यथा स्थान आएगें,किसी के ऊपर नहीं चढ़़ेगें |,
आधा र का जरुर रेफ बनकर पीछे के वर्ण पर जाएगा
इसकी एक संस्कृत सूक्ति मुझे कुछ कुछ याद है।
जल तुम्विका न्यायेन रेफस्य च ऊर्द्धगमनम्
जिस प्रकार जलतुम्वी हवा रहित होने से जल में ऊर्द्धगमनम् हो जाती है उसी न्याय अनुसार ” र” यदि बिना स्वर का हो तब पीछे की ओर ऊर्द्धगमनम् ( शिरोरेखा के ऊपर ) हो जाएगा
त्र ज्ञ का आधा रुप होता नहीं है
इसी तरह यह बहुत ही नया आसान तरीका है समझने का
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अनुनासिक या चंद्रबिंदु (ँ)
अनुनासिक, स्वर होते हैं, इनके उच्चारण करते समय मुँह से अधिक और नाक से बहुत कम साँस निकलती है। इन स्वरों के लिए चंद्रबिंदु (ँ) का प्रयोग होता है और ये शिरोरेखा यानी शब्द के ऊपर लगने वाली रेखा के ऊपर लगती है। ऐसे कुछ शब्द हैं:
उदाहरण– माँ, आँख, माँग, दाँव, डाँट, दाँत. चाँद आदि। यह ँ चंद्रबिंदु इसलिए शोभित है कि इसके साथ कोई और मात्रा नहीं है ,
अनुस्वार बिंदी ं लगाना उचित नहीं है , जैसे – मां आंख मांग दांव डांट दांत चांद , आप इन शब्दों में अनुस्वार का उच्चारण करके देख लीजिए , आपको अनुभव हो जाएगा कि आप क्या उच्चारण कर रहे हैं।
कई बार अनुनासिक या चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का भी प्रयोग किया जाता है, ऐसा तब होता है जब शिरोरेखा के ऊपर कोई और मात्रा भी लगी हो। जैसे- इ, ई, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राओं वाले शब्दों में चंद्रबिंदु होने के बाद भी इन मात्राओं के साथ बिंदु के रूप में ही अनुनासिक को दर्शाया जाता है। ऐसे कुछ शब्द हैं:
उदाहरण– कहीं नहीं, मैं सिंह , सिंघई आदि , (कहीँ नहीँ सिँह सिँघई लिखना सही नहीं है
–कई बार अनुनासिक की जगह अनुस्वार का प्रयोग शब्द के अर्थ को भी बदल देता है:
जैसे– हंस (जल में रहने वाला एक जीव),
हँस (हँसने की क्रिया) हँसना सही है , पर हंसना × है
स्वांग(स्व+अंग) अपना अंग,
स्वाँग (नाटक)
आँगन √ आंगन × है
पूँछ √ (दुम) पूंछ × है
अनुस्वार और अनुनासिक में अंतर
अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिक स्वर है।
अनुस्वार को पंचम अक्षर में बदला जा सकता है, अनुनासिक को बदला नहीं जाता।
अनुस्वार बिंदु के रूप में लगता है और अनुनासिक चंद्रबिंदु के रूप में।
अगर शिरोरेखा के ऊपर मात्रा लगी हो तो अनुनासिक भी अनुस्वार या बिंदु के रूप में लिखा जाता है जबकि अनुस्वार कभी चंद्रबिंदु के रूप में नहीं बदलता।
अब आजकल कुछ विचित्रताओं को मान्यताएं मिल रही है
रंग (सही रुप है – रङ्ग ) पर की बोर्ड की अनुलब्धता व हिंदी राज भाषा समिति ने ङ को अनुस्वार रुप बिंदी ं में लिखना प्रारंभ किया , किंतु र पर अनुनासिक चंद्र बिंदु ँ लगाकर रँग लिखना कहाँ से प्रारंभ किया गया है , मुझे संज्ञान नहीं है , इसी तरह अंग व अँग है |
छंदों में मात्रा घटाने बढ़ाने में इनका उपयोग किया जा रहा है।
फेस बुक पर अब प्रलाप चल पड़ा है , बहुत से तर्क करने की जगह कुतर्क पर आ जाते हैं , हमने जो शिक्षा पाई है वह , आप सबसे साझा की है।
जिनको हमारा आलेख अच्छा लगे उनका आभारी हूँ। व जिनको त्रुटियाँ महसूस होती हों ,उनसे भी क्षमा प्रार्थी हूँ कि हो सकता वह सही हों, व मैं गलत।
सादर
आलेख ~ सुभाष सिंघई एम• ए• हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र
( पूर्व हिंदी भाषानुदेशक आई टी आई )