ए़हसास
वैसे तो बदलते हैं हर शख़्स वक्त के साथ गुजरते वक्त को थमा लूंँ तो चलूँ ।
वैसे ही गुजर जाते हैं लोग देकर ठोकरें इन रहगुज़र के पत्थरों को इनमें चंँद् गिरतों को संभाल लूंँ तो चलूं।
सोजे़ अश़आर सोजे़ आ़ब सोजे़ इज़हार कोई एक नया नग़मा बना लूंँ तो चलूंँ।
तिशनगी की हर तरफ कायम है सूखे होठों पर ।
हर किसी की थोड़ी सी प्यास बुझा लूंँ तो चलूं।
वैसे तो खुदगर्ज कई है इस जमाने में खुद को गैरत मे डुबा लूंँ तो चलूंँ ।
फिर वही साज़ वही आवाज़ वही झंँकार पर गुम़शुदा हैं वो बोलती निगाँहें खुद को किस कदर बहका लूँ
तो चलूंँ ।
हर सुबह नई हवा और म़दमाती फिजा़ फिर क्यों नहीं ये दिल बहला हुआ इस जे़हन में कोई नई तस्वीर बसा लूं तो चलूंँ ।
समा़अत के इस मौसम में ये सर्दियांँ कैसीं दिल को जला कर कुछ ग़र्मिए ऐहसास करा लूँ तो चलूँ ।