एक ग़ज़ल “बह्र-ए-जमील” पर
इक अजनबी दिल चुरा रहा था।
करीब मुझ को’ बुला रहा था।
वो’ कह रहा था बुझाए’गा शम्स,
मगर दिये भी जला रहा था।
वो’ ज़ख़्म दिल के छुपा के दिल में,
न जाने’ क्यों मुस्करा रहा था।
वो सबक़-ए-उल्फत हम ही से पढ़कर,
हमें मुहब्बत सिखा रहा था।
बुरा है’ टाइम तो’ चुप है’ “रोहित”।
नहीं तो’ ये आईना रहा था।
©रोहिताश्व मिश्रा