एक ग़ज़ल के चन्द अस्सार
आजाद है वतन सही, आजाद हम नहीं।
खाई गरीब -अमीर की, अब भी खतम नहीं।
हमने संजोए थे कभी, खुशहालियों के ख्वाब,
आंखों में बाढ़ आज भी, अश्कों की कम नहीं।
रोटी की माँग पर हमें हैं,जेल-गोलियां, चूल्हे बुझे पड़े थे जो, अब भी गरम नहीं।
@डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’ अधिवक्ता /साहित्यकार सर्वाधिकार सुरक्षित