एक ख़्वाब
अगर ख़्वाब ना होते तो, ना होती ये लाचारी
मिलजुल ख़ुशी ख़ुशी से, रहती दुनिया सारी
नहीं कहीं कोई भी, परेशान कहीं पे दिखता
ना ऐसे कोई ख़्वाब सजा, मजदूर पलायन करता
नहीं कभी तानों में, मुझको परदेशी कहता
नहीं होते गर ख़्वाब तो मैं, यह सब काहे सहता
रहता मैं भी बैठा संग, अपनों की महफ़िल में
जैसे बैठे ताक में नेवला, किसी साँप के बिल में
ध्यान लगाकर कुछ यूँ ही मैं, चिन्हित भी हो जाता
इस संसार में सबसे ऊपर, अपना वर्णित नाम कराता
नहीं कोई भी कर पाता, कोई मुझसे कभी गुस्ताख़ी
वरना उसको उस पल ही मैं, ताड़ीपार करवाता
लेकिन शायद इन ख़्वाबों ने, बाँध दिया है मुझको
कहता है ऐ मानुष मेरे, साथ जरा तुम उलझो
देखो तुमको मिलता कितना, है सुख इसी धरा का
मारते हो हक़ दूसरे का तुम, षड्नीति यही कहाता