एक हैसियत
सागर किसी तरह अपने कपड़े झाड़कर खड़ा हुआ। उसने महसूस किया कि उसके घुटने मोड़ने या सीधे करने पर दर्द का चनका उठता था। एक चक्की के टूटे हुए दो पाट एक के ऊपर एक रखकर बैठने लायक ऊंचाई थी, जिन्हें शायद वहाँ बैठने वाले मोची ने अपने ग्राहकों को बैठने के लिए उपयोग में लाने के लिए रखा होगा। सागर किसी तरह लंगड़ाता हुआ आकर उसी पत्थर पर आकर बैठ गया। उसने गौर किया तो पाया कि घुटनों के ऊपर खून और मिटटी का मिला-जुला रंग नीली जींस के ऊपर झलक रहा था। उसकी जींस भी घुटने के ऊपर फट गई थी। उसने अपने हाथों-पैरों का मुआयना किया तो पाया की छोटी-छोटी खरोंचें उसकी दोनों कोहनियों पर भी थीं। सागर का चश्मा नाली के ओवरफ्लो हो जाने पर भरे हुए एक छोटे से गड्ढे में पड़ा था। उसे अपनी साइकिल की चिंता हुई। वो भी सड़क से उतरकर ढलान से नीचे जाकर एक झाड़ी में फँसी हुई थी। सागर ने याद करने की कोशिश की कि क्या हुआ था तो उसे बस इतना याद आया कि वह अपनी साइकिल से स्कूल जा रहा था तभी मोहल्ले के अन्य बच्चे वहाँ से गुजर रहे थे। उन बच्चों ने अपनी आदत के मुताबिक चश्मिश-चश्मिश कहकर चिढ़ाना चालू कर दिया। सागर ने उनसे बचकर निकलने की कोशिश की तो उसकी साइकिल लड़खड़ाकर उसे वहीँ पटककर सड़क किनारे ढलान से उतरती हुई एक झाड़ी के ऊपर गिरी जाकर। उसे शायद एक लड़के ने चलती साइकिल पर जोर का धक्का दिया था। उस धक्के की वजह से ही उसकी ये दशा हुई थी। तीव्र दर्द के चलते उसे रोना भी आ रहा था। साइकिल को झाड़ी के उलझाव से हटाकर वो कीचड़ के गड्ढे से अपना चश्मा उठाने की लिए झुका ही था कि उसे किसी बच्चे की आदेशात्मक आवाज सुनाई दी, “रुको”।
सागर उठकर खड़ा हो गया। घूमकर देखा तो एक साँवला सा लड़का, गले में काले डोरी में पिरोया हुआ हरे कपडे से बना ताबीज़ और मात्र बनियान के साथ शार्टनुमा हाफ पैंट पहने हुए खड़ा था। अपने अनुभव के आधार पर एवं पूर्वाग्रहों के आधार पर उसने सोचा कि यह लड़का भी बदमाश ही होगा और शायद उन लड़कों से ज्यादा खतरनाक भी जो उसे बुली करते हैं क्योंकि इसका तो शारीरिक-सौष्टभ भी उन लड़कों के मुकाबले बहुत अच्छा है। सागर को सोच में पड़ा देख उस लड़के ने हल्की सी मुस्कुराहट बिखेरी। इतनी सुन्दर मुस्कान थी उसकी कि सागर का सारा डर एवं भ्रम जाता रहा। उसने सागर का नाम पूछा और सागर के बोलने से पहले ही बोल उठा, “मेरा नाम प्रताप है”। क्या ढूँढ रहे थे उस कीचड़ के गड्ढे में। सागर कीचड़ से बाहर दिख रहे चश्मे के एक लेंस और कमानी की तरफ देख रहा था। अरे क्या है वहां, अच्छा तुम्हारा चश्मा हैं वहाँ, चश्मा लगाते हो, चश्मिश हो। सागर को चश्मिश शब्द बुरा लगा पर उसने हाँ में अपना सिर हिलाया। रुको मुझे निकालने दो नहीं तो तुम तो और सना लोगे अपने चश्मे को। प्रताप ने सागर के चश्मे को निकाला और पास के एक नल के नीचे ले जाकर धोकर ले आया और सागर को दिया। “चलो यहाँ से हटो बहुत धूप है, तुम झेल नहीं पाओगे, नाजुक बदन के लोग न ज्यादा गर्मी झेल पाते हैं और न ज्यादा सर्दी”, प्रताप सागर को थोड़ा सा सहारा देकर एक नीम के पेड़ के नीचे पड़ी एक लकड़ी की पेटी पर बैठने को कहा। ये मेरे पापा की दुकान है। बैठ जाओ इस पर, आज पापा ने काम से छुट्टी कर रखी है। अरे! बैठ भी जाओ, सागर को संकोच में देखकर प्रताप ने थोड़ी जबरदस्ती से बिठा दिया। इतनी छोटी दूकान? क्या करते हैं तुम्हारे पापा? सागर ने जिज्ञासा के साथ कहा। ओ भाई, इसके तो जुबान है, मुझे तो लगा था कि कहीं गूंगा ही न हो। इतना कहकर प्रताप जोर से हँसा और सागर से फिर से उसका नाम पूछा, अरे भाई अब तो बता दे अपना नाम। पढ़ना-लिखना नहीं आता हैं नहीं तो तुम्हारे गले में लटके पट्टे से खुद ही पढ़ लेता। अपना नाम बताने के साथ ही सागर सोच रहा था कि इसकी उम्र तो मुझसे ज्यादा लग रही है फिर ये पढ़ना-लिखना क्यों नहीं जानता। सागर ने यही बात प्रताप से पूछ भी ली। प्रताप के चेहरे पर एक दर्द उभरा और तुरंत ही गायब होकर उपहास के भाव प्रकट हुए। तुम सचमुच में लुल्ल हो क्या। मेरे पापा की इस दुकान को देखकर भी नहीं समझे। चलो छोड़ो और ये बताओ कि तुम गिर कैसे गए थे। सागर ने अपने साथ आज हुई घटना के साथ बताया कि कैसे मोहल्ले के लड़के कभी उसे अपने साथ खेलने नहीं देते हैं और उसे चश्मिश-चश्मिश कह कर चिढ़ाते भी रहते हैं और कैसे उसे धौल जमाया करते हैं।अच्छा ये बताओ कि तुमने कोई पढ़ाई-लिखाई क्यों नहीं की? प्रताप ने बोलना चालू किया कि उसके छह भाई-बहनों में खाने का ही बड़ी मुश्किल से पूरा पड़ता है तो स्कूल की फीस, किताबों का खर्चा कहाँ से उठाते पापा। सागर ने कहा कि अगर वह उसे पढाये तो पढ़ लेगा। दिन में तो नहीं पढ़ सकता मैं क्योंकि काम पर रहता हूँ। कोई नहीं रात को पढ़ लेना। रात को कौन पढ़ाता है? मेरी मम्मी और पापा, मैं और मेरी बहन और एक-दो हमारे दोस्त मिलकर रात को पढ़ाते हैं। रात को पढ़ाते हो तो फीस भी ज्यादा होगी? सागर उसके भोलेपन पर जोर से हँसा। हम कोई फीस नहीं लेते बल्कि किताबें और कापियाँ तथा पेन-पेंसिल अलग से देते हैं। तुम आज से ही आना। प्रताप ने सहमति में सिर हिलाया। सुनो सागर आज से तुम्हारी सेफ्टी मेरी जिम्मेदारी, उन लौंडों को मैं देख लूँगा। सागर उसकी इस बात पर बोला कि नहीं उनसे कोई बदला नहीं लेना है पर। पर क्या? पर मेरा कोई दोस्त नहीं है यहाँ पर। तो मुझसे दोस्ती करोगे? सागर ने प्रश्नवाचक निगाहों से प्रताप की आँखों में देखा तो उसे उनमें संदेह के बादल घुमड़ते दिखे। क्या सोच रहे हो प्रताप? ओ ! भाई, तुम उधर कोठी वाले और हम झोपड़ी वाले, हमारी दोस्ती कैसे निभेगी? ये जो दौलत की खाई है न, हमें दोस्त नहीं बनने देगी, हाँ अगर कोई काम-आम हो तुम्हारी कोठी पर तो बता देना। भाई हमारे पापा की कमाई भी तुम्हारे पापा से कोई बहुत ज्यादा नहीं होगी। हम भी बहुत साधारण जीवन जीते हैं, साधारण खाना खाते हैं, साधारण कपडे पहनते हैं। हाँ, पर साफ-सुथरे रहते हैं। बस तुम्हारे माँ-बाप के सात संतानें हैं तो हमारे माँ-बाप की सिर्फ दो। फर्क इसी से पढ़ जाता है। अरे ऐ! साफ़-सुथरे अपनी शक्ल देख जरा। हँसते हुए बोला प्रताप। दोस्ती फिर भी बराबरी की चीज है। वैसे तो मैं तुम्हारी ये बात नहीं मानता। सुदामा-श्रीकृष्ण जैसे बहुत उदाहरण हैं पर मैं तुम्हे बताऊँ की हमारी तुम्हारी तो बराबरी की हैसियत है। एक हैसियत। कैसे? प्रताप ने पूछा। देखो तुम मुझे उन लफंगों से बचाओगे तो मैं एक तनाव से मुक्त होकर और अच्छे से अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे सकूँगा और तुम अगर हमारे परिवार से पढोगे तो हो सकता तुम भी परीक्षाएँ पास करने की क्षमता पा सको और तुम अपने पापा के लिए और मदद कर सको। मेरे जैसे लोग कहाँ से पास करेंगे कोई परीक्षा। लगन हो तो कुछ भी संभव है। जब तुम शाम को आओगे तो तुमको एक तुम्हारे जैसे ही लड़के से मिलवाऊंगा जो तुम्हारी उम्र में हमारे पापा को मिले थे जैसे तुम आज हमें मिले हो। आज एक अच्छी-खासी कमाई वाला काम कर रहे हैं। पढ़ाई का फर्क पड़ता है भाई। भाई नहीं दोस्त और ये कहकर प्रताप ने सागर को गले लगा लिया। दोस्त आज तो गले लगा लिया क्योंकि हम दोनों आज बराबर के गंदे हुए पड़े हैं। पर दोस्ती का पहला वादा करो कि कल से रोज़ नहाओगे जिससे मैं तुम्हें रोज़ गले लगा सकूँ। बिलकुल दोस्त। तो आज से हमारी पक्की दोस्ती। सागर और प्रताप एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर सागर के घर की ओर साइकिल लेकर चल दिए। सामने से देखा तो सागर के मोहल्ले के वह लफंगे लड़के चले आ रहे थे।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”