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14 Dec 2017 · 4 min read

एक संस्मरण: जोखिम भरी तैराकी

एक संस्मरण: जोखिम भरी तैराकी
// दिनेश एल० “जैहिंद”

[[ “शीर्षक साहित्य परिषद्” ( भोपाल ) द्वारा चुनी गई दैनिक श्रेष्ठ रचना ]]

वैसे तो हर लेखक-कवि कुछ-न-कुछ अपनी यादों को संस्मरण के रूप में ढालते रहते हैं । मैं भी कभी-काल इस पर लिखता हूँ । पर फिलहाल मेरे पास सर्दी के दिनों का कोई बेहतरीन संस्मरण नहीं है । फिर भी एक रोचक व रोमांचक संस्मरण लिखना चाहता हूँ और अपने अजीज पाठकों को अपने संस्मरण से बाँधकर अपनी लेखनी का जादू उन पर बिखेरना चाहता हूँ । और आशा करता हूँ मैं कि वे मेरी कलम के जादू में फँसकर मंत्रमुग्ध हो जाएंगे । तब जाकर मैं समझूँगा कि मेरा इस संस्मरण को लिखना सार्थक हुआ ।
पाठको ! कोई संस्मरण लिखना आसान नहीं हैं, अपने मस्तिष्क के स्मरण वाली बटन दबानी होती है और फिर रिवर्स वाली तब जाकर आपकी यादों वाली फाइल में धुँधली-धुँधली-सी कुछ पुरानी तस्वीरें झलकती हुई-सी नजर आती हैं, फिर आप प्ले वाली बटन दबाएंगे तो कहीं जाकर सिलसिलेवार या टूटी-फूटी वे पुरानी तस्वीरें नजर आएंगी और तब आप उन्हें क्रमबद्ध तरीके से सजाकर लिख सकते हैं । आपको अगर कहा जाए संस्मरण लिखने के लिए तो आप फुस्स-से हो जाएंगे, और गर्दन नीची कर लेंगे । और कहेंगे—‘‘हीं-हीं-हीं ! अरे जनाब, हम तो ठहरे पाठकगण । हम भला कैसे लिख पाएंगे ?”
नहीं लिख पाएंगे तो मेरा लिखा हुआ पढिए । हाँ, पढ़िए एक ही साँस में ।
सन् 1992-93 की सर्दी वाले महीनों की बात है । उस समय मैं बारहवीं के प्रथम या द्वितीय सत्र में रहा होगा । मेरी दिनचर्या में सुबह-सुबह गंगा नदी में नहाना व सूर्य देव को जल-अर्घ्य देना, फिर घर आकर ठाकुर के सम्मुख धूप-बाती करना शामिल था । मैं बचपन से ही लेट-लतीफ रहा हूँ । कभी-कभार सुबह आँख लग जाती, तो बहुत लेट हो जाती थी । घाट पहुँचते-पहुँचते मुझे बहुत देर हो जाया करती थी । पर इतना जरूर था कि गंगा में ही नहाना होता था ।
पाठको ! गंगा मइया की बात चली है तो मैं आपको बता दूँ कि यह वही गंगा है जो हिमालय पर्वत से निकली है और भिन्न-भिन्न जगहों पर इसका विभिन्न नाम हो जाता है । जहाँ की मैं बात कर रहा हूँ वहाँ इसका नाम ‘हुगली’ नदी है । यह इसका स्थानीय नाम है । यहाँ इसे लोग अन्य नामों से भी जानते हैं । जैसे- भागीरथी, पद्मा । ‘पद्मा’ गंगा की एक प्रमुख शाखा है, जो बंगला देश की ओर बहती है । यहाँ भी गंगा की यही विशेषता है कि सैकड़ो शहर इसके दोनों किनारों पर फैले हुए हैं और सभी शहरों का संबंध किसी-न-किसी रूप में गंगा से बना हुआ रहता है, जैसाकि और जगहों पर है ।
‘गंगा’ की एक और विशेषता की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा, जो जिज्ञासा व कौतूहल से भरी पड़ी है और शायद अन्य कहीं देखने को नहीं मिलती है । वह यह है कि इस नदी में ज्वार-भाटा होता है, जबकि यह समुंद्रों में देखने को मिलता है, लेकिन इस नदी का भाटा तो नहीं पर ज्वार देखने लायक होता है । उस समय तो इसे देखने के लिए लोगों की भीड़-सी उमड़ जाती थी । जो लोग कुछ समय के लिए कलकत्ता प्रवास किए होंगे वो इस घटना से वाकिफ अवश्य होंगे । मेरे इस संस्मरण में इसी ज्वार का जिक्र आया है ।
एक सुबह मैं जैसे ही घाट पर पहुंचा कि दो-चार मित्र पहले से पहुंचे हुए मिले । बातों-बातों में दो-चार और आ गए । अपने-अपने काम और गपशप दोनों एक साथ चलने लगे । जब पुनः हम इकट्ठे हुए तो तैराकी की बात चलने लगी । वहाँ मुझे छोड़कर शेष सभी अच्छे तैराक थे । ज्वार दो-तीन घंटे पहले आकर गुजरा था । पश्चिम से पूर्व की ओर तेज धार चल रही थी । चूँकि मैं एक कमजोर तैराक था और उस पर से सर्दी का महीना, मैं हीनता व उपहास का शिकार न बन जाऊँ सो मैंने उनकी शर्त मान ली । शर्त उन्होंने क्या रखी थी, मानो मौत के कुएँ में घूमकर जिंदा घर वापस आना ।
“किनारे से तकरीबन एक किलो मीटर दूर लबालब धारदार पानी में गड़े बाँस के सैकडों खंभों में से एक को छूकर वापस लौटना ।” यही जोखिम भरी शर्त थी, सुनकर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए । अब मेरी तो जान पर बन आई । आर या पार । मैं तब भी बहादुर व दलेर था और आज भी बहादुर और दलेर हूँ । हाँ, ये बात अलग है कि अपनी बहादुरी दिखाने का और देश सेवा करने का सुअवसर मुझे नहीं मिल सका ।
मैंने तनिक मन में विचार किया और लंगोटी कश ली मैदान में कूदने की । फिर आव देखा न ताव झट नदी में छलांग लगा दी । शुरू में खंभा छूने की ठानी मन में और तैरता गया, तैरता ही गया । जब एक गज छूने को रह गया लक्षित खंभा तब मेरा दम फुल गया, मैं थक गया । मौका पाकर तेज धार मुझे अपने साथ बहाने लगी । एक बार तो ऐसा लगा कि मैं अब नहीं बचूँगा, जलधाराओं के साथ बह जाऊँगा । मगर मैंने भी छूने की ठानी थी सो अंततः अपने ठाकुर को याद किया, फिर जोर लगाई और खंभे को छूने के बदले मैंने उसे पकड़ लिया, फिर आराम से मन भर दम मारा ।
जब वापस शरीर में बल दौड़ा तब उधर से लौटने का निश्चय किया । फिर थकता-हारता जोर लगाता अंततः किनारे तक पहुँचकर निढाल होकर गिर पड़ा । मित्रों ने तालियाँ बजाते हुए मेरे पास आकर मुझे थाम लिया । मैं ठिठुरता हुआ जोर-जोर से साँसें भरने लगा । मैंने बाजी मार ली थी । बस, यही मन को सुकून था ।

==============
दिनेश एल० “जैहिंद”
04. 12. 2017

Language: Hindi
Tag: लेख
375 Views

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