‘एक शहादत ये भी’
कोई ज़िक्र ही नहीं करता
उस शहादत और उन शहीदों की जो
किसी सरहद नहीं जीवन संग्राम में
अपना बचा हुआ जीवन ही नहीं
ली जाने वाली एक एक सांस को
हर रोज़ न्योछावर करते आये हों
ताउम्र अपने बच्चों
अपने परिवार के लिए,,,
वो नहीं चाहते कीर्ति चक्र
बस एक छोटा सा ज़िक्र
हृदय में और बातों में
उत्सव भरे दिनों में और
उन जगमग रातों में जो
बाहों की सौगात बनने से पहले
उनके होठों की बात थे
उनकी आँखों के ख्वाब थे
जिनके होने से तूफानों में भी
अपने सपने आबाद थे ,,,,,
क्षमा उर्मिला