लिखू क्या….
लिखूं क्या …
एक विचारों
जिनमे स्वंत्रता बची नहीं
एक आवाज
जिसे दबा दिया जाता है
एक अर्जी
जो सुनी नहीं जाती
एक बहस
जिमसे घुटन भरा जाता है
एक प्रेम
जिसमे स्वार्थयुक्तता होती है
एक राज
जो कभी खुला ही नहीं
एक किताब
जिसमे हर पन्ना काला है
लिखू क्या..
यह सब देख कर उलझ जाता हू खुद को सुलझाते सुलझाते है
यहां कई धागे है जो क़त्ल प्यार से करते है.